
कातिक आने को है !!
अब सुबह-शाम गुलाबी ठंड पड़ने लगी है। घास में पड़ने वाली ओस सूरज की पहली किरण पड़ते ही मोतियों सी चमकने लगी है।
कातिक माह अवश्य ही फागुन का जुड़वा भाई होगा क्योंकि यह महीना सब तरह से अच्छा होता है। धूप कोमल रहती है और सर्दी भी गुलाबी रहती है। न भीषण गर्मी, न कड़ी सर्दी। सुबह-शाम सीत्कार भरती ठंडी हवाएं हौले से कानों को छूकर निकल जाती हैं। दिन चढ़ते ही सूरज की तपिश गुड़ वाले गुनगुने दूध सी महसूस होती है। अंधेरा होने के बाद घर के पीछे खुले मैदान में रात भर टप -टप गिरे हरसिंगार के फूल एक तिलस्मी सुगंध से महौल को सराबोर कर देते हैं।
आश्विन माह की शरद पूर्णिमा बरखा ऋतु की विदाई और शरद ऋतु के आगमन का संधि दिवस है। इस तिथि को चांद अपनी समस्त कलाओं के साथ प्रकट होता है। इस धवल, उज्ज्वल चंद्रमा की किरणें पृथ्वी पर रात भर अमृतवर्षा करती हैं। महिलाएं उस दिन छत पर खीर इस विश्वास के साथ रखती हैं कि रात को उन पर अमृत कण गिरेंगे और इसे भोग लगाने वाले समस्त जन निरोग और दीर्घायु हो जाएंगे। मां लक्ष्मी का उसी दिन प्राकट्योत्सव भी माना जाता है तथा उसी रात भगवान कृष्ण ने महारास किया था, ऐसी मान्यता है। यानि कुवार (आश्विन) बीतते ही प्रेम के, रस के, धन-धान्य के दिन आने वाले हैं। त्योहारों की बहार आने वाली है।
कातिक का महीना बड़ा पवित्र माना जाता है। हमारे बैसवारा में महिलाएं कातिक शुरू होते ही सभी पुरुषों को चेता देती हैं कि अब से गोधन कुटाए तक घर में मास मच्छी, अंडा मुर्गी सब बंद। बाहर से भी खाकर नहीं आना है। नहीं तो देवता घर में पांव नहीं धरेंगे। आज से, अभी से ई सब मल्लेच्छन वाला काम बंद। हालांकि त्योहारों का मौसम तो कुआर से शुरू हो चुका है। नवरात्र अभी समाप्त हुई है, देवी मां की अगले नवरात्र में आने के लिए विदाई हो चुकी है। दशहरा के दिन रावण जल चुका है, बच्चे मेला का आनंद ले चुके हैं। अब भगवान राम लंका से अयोध्या नगरी वापस लौटेंगे, तब दीपावली मनाई जाएगी। घर के कोने-कोने की सफाई होगी और अमावस्या की अंधेरी रात में भगवान राम के स्वागत में घर, आंगन, खेत, खलिहान को दियों से रोशन किया जाएगा। उस दिन बच्चे पटाखे फोड़ेंगे और बनिया नया खाता शुरू करेंगे।
उसके बाद विशेषकर पूर्वांचल और बिहार में लोकआस्था के महापर्व छठ की धूम मचेगी। हमारे बैसवारा में कतकी गंगा स्नान (कार्तिकी पूर्णिमा) की तैयारियां शुरू हो जाएंगी। कतकी स्नान के बाद त्योहारों का मौसम होली तक के लिए रुक जाएगा। लेकिन समय का चक्र चलता रहेगा। खेती-किसानी चलती रहेगी, फसलें काटी और बोई जाती रहेंगी। अभी खेतों में धान के पौधों के तने और पत्तियां हरी हैं लेकिन उनकी मोटी और हवा के साथ लहराती बालियां पककर सोने की रंगत ले चुकी होंगी। दूर से देखने पर ऐसे लगेगा मानो किसी हरी साड़ी वाली गोरी ने गले में सोने का बड़ा सा हार पहन लिया हो।
कुवार की चटक, तेज़ धूप कुछ ही दिन के लिए बची है। इसलिए चतुर महिलाएं इसका फायदा उठाने के लिए सारे रजाई- गद्दे धूप में डाल देंगी। क्योंकि कातिक आते ही तड़के कुछ ज्यादा ही ठंड हो जाती है, तब मोटे चद्दर से भी काम नहीं चलेगा। कातिक आते ही घर के पुरूष
धान काटने वालों मजूरों की गिनती कर आएंगे क्योंकि पहले मजूर धान काटेंगे, फिर एक- आध हफ्ता उनको खेत में सूखने में लगेगा। उसके बाद धान की फसल के बोझ बांधकर आफर (खलिहान) लाये जाएंगे। इससे पहले कि आंधी-पानी आए, कोई काज-परोजन पड़े, उसके पहले फसल घर आ जानी चाहिए।
अभी काफी समय है इसलिए बारिश में ऊबड़-खाबड़ हुआ खलिहान फरुआ (फावड़े) से बराबर किया जा रहा है। जिस दिन धान के बोझ खलिहान आएंगे उसके एक दिन पहले चार -छह छीटा गोबर और 10 -12 बाल्टी पानी खलिहान में पहुंचा दी जाएगी। फिर पूरा खलिहान गोबर से लीपा जाएगा। लिपाई सूख जाने के बाद खलिहान के बीचोबीच तखत, सरावनि या लकड़ी का कोई बड़ा कुंदा (टुकड़ा) रख दिया जाएगा जिस पर मजूर धान पीट सकेंगे। वह लोग धान पीटने के बाद पैरा (पुआल) एक तरफ फेंकते जाएंगे और धान एक जगह इकट्ठा करके उसकी कूरी (ढेर) बनाई जाएगी।
पूरा धान पीटने के बाद पुआल बाहर की तरफ और धान का ढेर खलिहान के बीचोबीच लगा दिया जाएगा। तब किसान मजूरों को मजदूरी देने आएगा। वह 12 डलिया धान अपनी तरफ रखेगा और एक डलिया धान मजूरों की बोरी या पुरानी लेकिन मजबूत धोती या चद्दर में डाल देगा। इस तरह मजूरों को उनका मेहनताना और किसान को अगली फसल तक के लिए अन्न मिल जाएगा। वह इस फसल का कुछ हिस्सा बेचकर पुरानी उधारी चुकाएगा, बच्चों के लिए दीपावली में खिलौने, पटाखे, कपड़े खरीदेगा, गृहस्वामिनी के लिए नई साड़ी खरीदेगा।
उसके बाद भी भगवान की किरपा से कुछ धन शेष रह गया तो अपनी मलकिन के लिए छोटा-मोटा ही सही कोई गहना-गुरिया भी बनवा देगा।
(विनय सिंह बैस)
बैसवारा के बरी गांव वाले