शिक्षाजगत् मे जो कुछ दिख रहा है, वह अत्यन्त दु:खद है

‘सर्जनपीठ’, प्रयागराज के तत्त्वावधान मे ९ जुलाई को गुरुपूर्णिमा की पूर्व-संध्या मे ‘शासकीय शिक्षालयोँ के प्रति शासन की उदासीनता का परिणाम और प्रभाव’ विषय पर एक राष्ट्रीय आन्तर्जालिक बौद्धिक परिसंवाद का आयोजन किया गया, जिसमे देश के अनेक राज्योँ से प्रबुद्धजन की सहभागिता रही।

हल्द्वानी (उत्तराखण्ड) से स्वतन्त्र लेखिका अमृता पाण्डे ने बताया, “गुरुशिष्य-परम्परा का स्वरूप आज विकृत हो गया है। इसे आधुनिकता का परिणाम कह सकते हैँ; लेकिन यह भी सच है कि शिक्षकवृन्द शिक्षण के अतिरिक्त अन्य कई प्रकार के कार्योँ में व्यस्त रहते हैँ, जिससे शिक्षणकार्य प्रभावित होता रहता है। कार्य की अधिकता और सुविधाओँ के अभाव मे शिक्षकोँ के मन मे असंतोष की भावना व्याप्त रहती है, जो उन्हेँ विद्यार्थियोँ से दूर करने मे एक महत्त्वपूर्ण कारक है।”

रायबरेली (उत्तरप्रदेश) से साहित्यकार आरती जायसवाल ने कहा, "शासकीय  शिक्षालयोँ के प्रति शासन की उदासीनता के परिणामस्वरूप शिक्षा की गुणवत्ता तथा शिक्षालयोँ  को अन्य मूलभूत और आधुनिक व्यवस्था नहीँ प्रदान की गयी है; शिक्षा-व्यवस्था मे सुधार करने के ठोस प्रयास नहीँ किये जा रहे हैँ, जिनके कारण शासकीय शिक्षालय अपना 'आदर्श स्वरूप' नहीँ ग्रहण कर पा रहे हैँ और  विद्यार्थियोँ की संख्या निरन्तर घटती जा रही है। इसप्रकार शिक्षालय अपने 'होने की' सार्थकता को खोते जा रहे हैँ और अपनी उपयोगिता-महत्ता से रहित सिद्ध हो रहे हैँ, जबकि केन्द्र और राज्य की सरकारेँ हाथ-पर-हाथ धरे बैठी हैँ।''

 आयोजक और भाषाविज्ञानी आचार्य पं० पृथ्वीनाथ पाण्डेय ने उपर्युक्त विषय के प्रति गहन चिन्ता प्रकट करते हुए कहा, "देश की शिक्षा और उसकी प्रणाली जिस दिशा मे जा रही है, उससे सुस्पष्ट हो चुका है कि केन्द्र और राज्य की सरकारेँ किसी स्तर के शासकीय शिक्षालयोँ की गुणवत्ता के प्रति गम्भीर नहीँ हैँ। वे केवल उथले और थोथले आदर्श वाक्योँ को जीती आ रही हैँ। यही कारण है कि निजी शिक्षण-संस्थाएँ शासकीय शिक्षालयोँ को बहुत पीछे छोड़ते हुए, कहीँ बहुत दूर की छलाँग लगा चुकी हैँ। सरकार के पास सबकुछ है; परन्तु इच्छाशक्ति और प्रतिबद्धता का पूर्णत: अभाव है, जिसे उन्हेँ समझना होगा। मूलभूत अधिकार के अन्तर्गत 'सबको शिक्षा का अधिकार' की नीति कुत्सित शासकीय नीयत को खोखली साबित कर चुकी है।''

 पटना (बिहार) के प्राध्यापक डॉ० अनिलरंजन ने बताया, "मै तो कई दशक से देख रहा हूँ कि देश मे एक प्राथमिक शासकीय शाला से लेकर विश्वविद्यालयोँ मे पठन-पाठन का स्तर कितना गिर चुका है। जो लोग शासकीय शिक्षण-संस्थाओँ मे परामर्शदाता-दात्री हैँ, उनमे से अधिकतर उन्हेँ शामिल किया गया है, जिन्हेँ 'शिक्षा' के 'श' तक की समझ नहीँ है। इसका मुख्य कारण देश की बेहद घटिया राजनीतिक प्रभाव है।''

    शहडोल (मध्यप्रदेश) से पूर्व शिक्षा-निदेशक डॉ० सुकान्त शर्मा ने बताया, "केन्द्र और राज्य की सरकारेँ सोयी पड़ी हैँ। केन्द्र और राज्य के शिक्षामन्त्रालय वे लोग सँभाल रहे हैँ, जिन्हेँ शिक्षा की शास्त्रीयता की बिलकुल समझ नहीँ हैँ। शिक्षा एक पवित्र शब्द है, जिससे समाज का परिष्कार होता है; परन्तु व्यवहार मे जो कुछ भी दिख रहा है, वह अत्यन्त दु:खद है।''