गुरुजी गोलवलकर जयन्ती : राष्ट्राय स्वाहा, इदं राष्ट्राय इदं न मम्

डॉ० निर्मल पाण्डेय (व्याख्याता/लेखक)

डॉ• निर्मल पाण्डेय

‘ये जीवन राष्ट्र का है, राष्ट्र को ही अर्पित है, ये मेरा नहीं है’ राष्ट्र को समर्पित । ऐसे मन्त्र के प्रणेता परम् पूज्य माधवराव सदाशिवराव गोलवलकर की आज जयन्ती है । सादर नमन।

‘राष्ट्र कैसे बनता है?’, प्रत्युत्तर में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के द्वितीय सरसंघचालक प. पू. माधवराव सदाशिवराव गोलवलकर बताते हैं कि इसकी मोटा मोटी तीन शर्तें हैं, पहली जिस देश में लोग रहते हैं उस भूमि के प्रति लोगों की भावना। दूसरी शर्त है, इतिहास में घटित घटनाओं के सम्बन्ध में सामान भावनाएं। फिर वे भावनाएं आनंद की हों या दुःख की, हर्ष की हो या अमर्ष की। और तीसरी और सबसे महत्त्वपूर्ण शर्त है, समान संस्कृति की। गोलवलकर ने भिन्न भिन्न सन्दर्भों से यह प्रतिपादित किया कि भारतवर्ष एक हिन्दू राष्ट्र है। ‘यह भारतभूमि इसका शरीर है, यह भारत एक अखंड विराट राष्ट्रपुरुष का शरीर है। हम सब उसके छोटे छोटे अवयव हैं, अवयवों के समान हम परस्पर प्रेमभाव धारण कर राष्ट्र-शरीर एकसंध रखेंगें।’

गोलवलकर इसमें आगे जोड़ते हैं कि, ‘वास्तविकता यह है कि ‘हिन्दू शब्द जातिवाचक नहीं है, यह सम्प्रदायवाचक भी नहीं है। अनादि काल से यह समाज अनेक सम्प्रदायों को उत्पन्न करके एक मूल से जीवन ग्रहण करता आया है। उसके द्वारा यहाँ जो समाज-स्वरूप निर्माण हुआ है वह हिन्दू है। भले ही यहाँ अलग-अलग राज हों, राज्य हों, सम्प्रदाय हों, असमानता या भिन्नता हों, पर यहाँ सांस्कृतिक एकता है, सांस्कृतिक एकरूपता है, एकसूत्र व्यावहारिक जीवन है।’

निष्कर्ष रूप में गोलवलकर एक बात पर आते हैं, ‘अपने राष्ट्र की सर्वांगीण उन्नति का जब हम विचार करते हैं, तो हिन्दू धर्म, हिन्दू संस्कृति, हिंदी समाज का संरक्षण करते हुए ही यह हो सकता है। इसका आग्रह यदि छोड़ दिया तो अपने ‘राष्ट्र’ के नाते कुछ भी नहीं बचता, केवल दो पैरों वाले प्राणियों का एक समूह बचता है… इसलिए हमें पूर्ण निश्चय के साथ यह कहना है, कि हाँ, हम हिन्दू हैं। यह हमारा धर्म, संस्कृति, हमारा समाज है और इनसे बना हुआ हमारा राष्ट्र है। इसी के भव्य, दिव्य, स्वतंत्र और समर्थ जीवन को खड़ा करने के लिए ही हमारा जन्म हुआ है।’

कुलमिलाकर राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के द्वितीय सरसंघचालक प. पू. माधवराव सदाशिवराव गोलवलकर का मानना था कि रीति-रिवाजों, परंपराओं और पूजा के तरीकों के मामले में भारत की विविधता इसकी विशिष्टता थी और यह विविधता मजबूत अंतर्निहित सांस्कृतिक आधार के बिना नहीं थी, जो वास्तविक रूप से इसके मूल में थी। उनका मानना था कि हिंदू अपनी सभी विविधता के साथ, अन्य अवयवों सहित “जीवन के समान दर्शन”, “समान मूल्यों” और “समान आकांक्षाओं” के बीच साझा करते हैं। भारत के मूल निवासियों द्वारा एक सामान्य संस्कृति, इतिहास और वंश को साझा करना ही वास्तव में भारतीय सांस्कृतिक राष्ट्रवाद है।

गोलवलकर यह अनायास ही नहीं कहते कि, ‘प्राकृतिक अनेकता से मानसिक एकता की ओर बढ़ने का प्रयास जिस बिंदु पर सफलतापूर्वक समाप्त होता है, उसी बिंदु से राष्ट्रीयता (Nationhood) का प्रारंभ होता है।’

अथर्ववेद(19/41/1) के उद्धरण से यह और भी स्पष्ट हो जाता है:
भद्रं इच्छन्तः ऋषयः स्वविर्दः।तपो दीक्षा उपसेदु: अग्रे।।
ततो राष्ट्रं बलं ओजश्म जातम। तदस्मै देवा उपसं नमन्तु।।
अर्थात आत्मज्ञानी ऋषियों ने जगत का कल्याण करने की इच्छा से सृष्टि के प्रारंभ में जो दीक्षा लेकर तप किया, उससे राष्ट्र का निर्माण हुआ, राष्ट्रीय बल और ओज भी प्रकट हुआ। इसलिए सब विविध इस राष्ट्र के सामने नम्र हो, नत होकर इसकी सेवा करें।

गोलवलकर ने अपने प्रेरणादायक जीवन दर्शन, विलक्षण व्यक्तित्व, प्रगाढ़ देशभक्ति और कुशल नेतृत्व से न केवल संघ अपितु पूरे भारतीय समाज व राष्ट्र के रूप में भारतवर्ष के उन्नयन में मन-वचन-कर्म से योगदान दिया। उनके मार्गदर्शन और उनके योगदान की आहुति से भारतवर्ष आज भी उर्ध्वाधर प्रगतिपथ पर गतिमान है।

आज ही के दिन 19 फरवरी 1906 को जन्मे और बाद में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के द्वितीय सरसंघचालक रहे प. पू. माधवराव सदाशिवराव गोलवलकर की जयन्ती पर उन्हें कोटिशः नमन्।