आज प्रयागराज के ‘जिला शिक्षा एवं प्रशिक्षण-संस्थान’ (डाइट) मे क्या-क्या रहा

आज (१० जनवरी) ‘जिला शिक्षा एवं प्रशिक्षण संस्थान’ (डाइट) ( ‘डायट’ और ‘डाएट’ अशुद्ध हैं।), प्रयागराज की ओर से ‘विश्वहिन्दी-दिवस’ (‘विश्व हिन्दी दिवस’ अशुद्ध है।) के अवसर पर आरम्भ मे, मेरी उपस्थिति मुझे भली लग रही थी; क्योंकि वह संस्थान एक ऐसी शिक्षण-प्रशिक्षणशाला है, जहाँ के विद्यार्थी का अगला प्रवास (पड़ाव) अध्यापन-क्षेत्र का होता है।

आरम्भ मे, छात्र-छात्राओं और अध्यापक-अध्यापिकाओं के चेहरे पर कुतूहल तथा अजनबीपन का एहसास स्पष्टत: दिख रहा था, जो स्वाभाविक ‘मन का विज्ञान’ कहलाता है। सभी की दृष्टि मुझ पर ही स्थिर थी। वक्ता-वर्ग बोलता रहा; उनमे से कुछ ही ‘कहते’ दिखे और वह भी जो प्राप्य (उपलब्ध) है, शेष ‘बोलते’ दिख रहे थे।

जब किसी भी वक्ता को शिक्षासंस्थानो मे विचार व्यक्त करने के लिए बुलाया जाये तब उसका यह दृष्टिकोण होना चाहिए कि वह ऐसा कुछ बताये-समझाये, जो कहीं पर भी उपलब्ध न हो अथवा वह यत्न और अध्यवसाय करने के अनन्तर (पश्चात्) ही अर्जित हो सके, अन्यथा वक्ता को आमन्त्रित वा निमन्त्रित करने का कोई औचित्य नहीं रहता। हाँ, यह पृथक् विषय है कि आयोजकों को विशेषीकृत वक्तव्य के साथ कोई प्रयोजन न हो और वे पिष्टपेषण(व्यर्थ बात को दुहराना)-समर्थक हों। वहीं पर यदि किसी व्यक्ति को समारोह मे बीजभाषक (विषय-प्रवर्तक) वा मुख्य अतिथि अथवा अध्यक्ष के रूप मे आमन्त्रित किया जाता है तब उस अतिथि का दायित्व गम्भीरतर हो जाता है।

आज मेरे साथ भी ऐसा ही रहा; परन्तु मेरा दृष्टिकोण और दृष्टिबोध भिन्न रहा है; क्योंकि जिधर ‘भीड़’ भागती है, उधर मै ताकता भी नहीं। बोझिल और थकित (शिथिल) मान्यताओं से सुदूर रहकर, स्वयं की मान्यता धरती पर उतारने और वह भी, ‘ठोस धरती’ पर, का पक्षधर रहा हूँ।

मैने प्रशिक्षणार्थियों को सम्बोधित करते हुए, प्रथमत: (सर्वप्रथम) बता दिया था, “आज की कर्मशाला ऐतिहासिक होगी”, जो रही भी।

मेरी कथनशैली ‘मित्रतापूर्ण’ रही है, मानो एक विद्यार्थी दूसरे विद्यार्थी के साथ खुले मन और हृदय से कथोपकथन (संवाद) कर रहा हो।

मेरी कर्मशाला आरम्भ हो चुकी थी। संस्थान के सैकड़ों प्रशिक्षणार्थियों को, एक-एक शब्द को व्याकरणस्तर पर विभाजित कर, उसमे निहित सन्धि, समास, धातुशब्द-रूप, उपसर्ग, प्रत्यय आदिक को समझाना ‘हस्तामलक’ (हाथ पर का आँवला― वह बात अथवा वस्तु, जो सब ओर पूर्ण रूप से स्पष्ट और ज्ञात होकर दिखलायी देती हो।) नहीं होता, जबकि मैने सहज और सरस शैली मे उन्हें समझाया और लिखाया भी। मैने उन सामान्य शब्द-व्यवहार और वाक्यप्रयोग को सकारण अशुद्ध ठहराया, जिनका आज शिक्षाजगत् मे निस्संकोच प्रयोग किया जा रहा है। मेरी मान्यता है, “भले ही हम हिन्दी का विस्तार कर लें, फिर भी शुद्धता के साथ यदि शैक्षणिक संस्थानो मे उसका व्यवहार नहीं होता है तो वह विस्तार औचित्यहीन है।”

शताधिक शुद्ध शब्दों पर सोदाहरण प्रकाश डालना, सहज विषय नहीं होता। फूल-कली का विभेद, महोदय का प्रयोग-रूप, जन्मदिन-जन्मतिथि, परिक्षा-परीक्षा, और, एवं, तथा, नकारात्मक-सकारात्मक शब्द-संगति, ध्वनि और मात्राविज्ञान, संख्यात्मक उच्चारण, ज़िला-जिला, मिष्टान्न-मिष्ठान्न, आरोपी-आरोपित, विज्ञान-विज्ञानी, रंग-रँग, सन्सकृत-सम्सकृत, आलोचना- आलोचक, समालोचना-समालोचक, समीक्षा-समीक्षक, चिह्न-चिन्ह, चाहिए-चाहिये, विविध-विभिन्न, योजक-चिह्न, निर्देशक-चिह्न, कोष्ठक-प्रयोग, विज्ञान-विज्ञानी, वैज्ञानिक, उपविरामचिह्न, एकल-युगल उद्धरणचिह्न, सम्बोधनचिह्न, विवरणचिह्न, लघ्वक्षर, प्रावधान-प्रविधान, बड़ा-बहुत, यें-एँ, पुनरुक्ति-दोष, नुक़्त:, अनुस्वार-अनुनासिक, अल्पप्राण, महाप्राण, अन्त:स्थ व्यंजन, आगत चिह्न आदिक का वाक्य मे प्रयोग करते हुए, विधिवत् समझाने का सुख अनिर्वचनीय रहा।

प्रशिक्षणार्थियों ने प्रश्न और प्रतिप्रश्न किये थे, जिनके उत्तर-प्रत्युत्तर भी दिये गये थे। अध्यापक-अध्यापिकाओं की समझ की प्रौढ़ता लाजवाब थी। आरम्भ मे, एक अध्यापिका और कुछ अध्यापक सभागार मे थे। अकस्मात् ऐसा प्रतीत होने लगा कि परछाईं लम्बी होती जा रही है, परिणामस्वरूप छात्र-छात्राएँ, एक अध्यापिका तथा तीन अध्यापक सभागार मे मौजूद थे, शेष अध्यापक सभागार से बाहर होकर ‘विटामिन डी’ (धूप का सेवन) ग्रहण करने मे तल्लीन थे; सम्भवत: बौद्धिक और मानसिक बुढ़ापे का असर सिर चढ़कर बोल रहा हो। ऐसा प्रतीत हो रहा था, मानो सभागार से दूर रहकर कलियुगी ‘एकलव्य’ की भाँति दीक्षा ग्रहण करने मे तल्लीन रहे हों। मुझे यदि उनकी उस दुर्लभ कोटि की अप्रत्याशित तल्लीनता का भान आयोजन मे पहुँचने से पूर्व हो गया रहता तो मै ”तौब:-तौब:” कर लेता।

समाज क्यों कहता है :― आज शिक्षा का बाज़ारीकरण कर दिया गया है? इसका उत्तर ताल ठोंककर प्रश्न की पीठ पर ‘बेताल’ की भाँति सवार दिख रहा था। साहस हो तो आचरणरहित अध्यापकवर्ग प्रश्न करके देख ले; उत्तर ऐसा तमाचा मारेगा कि गालों का रंग देखकर ‘सूरज की लालिमा’ भी शरमाती-सकुचाती दिखेगी।

शिक्षण-संस्थानो मे जिस क़िस्म की शिक्षा का बीज-वपन (बीज का बोना) किया जायेगा तथा जिस प्रकार के संस्कारों का खाद-पानी दिया जायेगा, उसी प्रकार की पैदावार उगती हुई दिखायी देगी। ऐसे मे, इस प्रकार के विधवा-प्रलाप का क्या औचित्य :― आजकल के विद्यार्थी पढ़ने-लिखने मे रुचि नहीं लेते; विद्यार्थी संस्कारविहीन होते जा रहे हैं।

आज ऐसे लोग को अपने भीतर झाँकने की ज़रूरत है। अध्ययन-अध्यापन, परीक्षा, परीक्षाफल, सेवा, नियुक्तियाँ क्यों संदूषित हो चुकी हैं, इसका उत्तर मेरी इसी बेबाक टिप्पणी के भीतर कुण्डली मारकर बैठा हुआ है।

(सर्वाधिकार सुरक्षित― आचार्य पं० पृथ्वीनाथ पाण्डेय, प्रयागराज; १० जनवरी, २०२३ ईसवी।)