सगर्व-सहर्ष घोषणा–

मेरी बहुप्रतीक्षित पाण्डुलिपि ‘नारीचरितमानस’ (समग्र नारी-दर्शन) अब अन्तिम रूप ग्रहण कर चुकी है। एक बार दृष्टि-अनुलेपन करूँगा, तदनन्तर उसे प्रकाशन-प्रक्रियाओं के साथ सम्बद्ध करने पर विचार करूँगा।

इसमें भावपक्ष, हृदयपक्ष, विचारपक्ष :– आदर्श और यथार्थ पर गम्भीरतापूर्वक विचार किया गया है। यह ऐसी कृति है, जो ‘नारीमर्म’ का सम्बोध कराती है; संस्पर्श कराती है तथा “नारी-जीवन झूले की तरह, इस पार कभी-उस पार कभी” को बहुविध एक अर्थ और आकार देती है, जहाँ वह अस्तित्व में रहते हुए भी अपने ‘अस्तित्व के यथार्थ’ को’ टटोलती रहती है; क्योंकि सहसा विश्वास नहीं होता कि ‘वह है भी’, फिर भी उड़ान भरने में संकोच नहीं करती। कहीं घूँघट सलज्ज दिखती है तो कहीं निर्लज्ज दिखती है।

निष्कर्ष और निष्पत्ति में यह अंश भी घुलते लक्षित होता है– नारी ‘नारी’ की गरदन (‘गर्दन’ शब्द अशुद्ध है।) रेतने-रेतवाने के लिए आतुर दिखती है।

★ आचार्य पं० पृथ्वीनाथ पाण्डेय