दीपावली पर कविता : दीपकों के धर्म से रात भी है जागती

राघवेन्द्र कुमार त्रिपाठी ‘राघव’–


प्रधान संपादक, इण्डियन वॉयस 24
मृत्तिका निर्मित दीये से
है अमावस काँपती।
जलते हुए नन्हें दीये से
डरकर निशा है भागती।

दीपक-देह की अभिव्यंजना से
रात जगमग हो रही।
दीपकों के धर्म से
रात भी अब जागती।
मृत्तिका-निर्मित दीये से
है अमावस काँपती॥

देह मानव की है माटी 
दीप जिससे है रचा।
स्नेह है उसमे भरा घृत
जीवात्मा है वर्तिका।
देश ऐसे दीप चाहे
बन सकें जो आरती।
मृत्तिका-निर्मित दीये से
है अमावस काँपती॥

जड़ता-अहंता काम-क्रीड़ा 
ये तमस के रूप हैं।
सद् असद् के घर है बन्दी।
पापी ही अब भूप हैं।
मिट सके नैराश्य जिससे
धरती दीया वो चाहती।
मृत्तिका-निर्मित दीये से
है अमावस काँपती॥

द्वैत ही अद्वैत है
दीप यह बतला रहा।
दीप-ज्योति एक हैं
जलकर दीया समझा रहा।
सृष्टि तम मे खो गयी
उज्ज्वल प्रकृति है मांगती।
मृत्तिका-निर्मित दीये से
है अमावस काँपती॥

दीप प्रज्ञा का जला
मन का अंधेरा मिट गया।
राम ही रहमान हैं
ये ज्ञान मन मे भर गया।
प्रिय; प्रेम को भूलें नहीं
प्रियतमा यह चाहती।
मृत्तिका-निर्मित दीये से
है अमावस काँपती॥