यह अत्यन्त शोक का विषय है कि गीतकार-नवगीतकार स्मृति-शेष माहेश्वर तिवारी जी अब सशरीर हमारे मध्य नहीं हैं; क्योंकि काफी दिनो से अस्वस्थ रहने के कारण १६ अप्रैल को दिन मे उनका निधन हो गया था।
अब मन-मस्तिष्क मे उनके साथ किये गये बौद्धिक संवाद रह गये हैं।
मुझे स्मरण है कि हम जब लगभग पाँच वर्षों-पूर्व एक राष्ट्रीय साहित्यिक समारोह की समाप्ति पर अपने-अपने स्थान से उठे तब सीधे उस होटल मे पहुँचे, जहाँ मेरे अगल-बगलवाले कमरों मे माहेश्वर तिवारी जी और बुद्धिनाथ मिश्र जी के लिए प्रवास की व्यवस्था थी।
हम तीनो एक साथ बैठे थे, तभी माहेश्वर तिवारी जी ने इलाहाबाद के साहित्यिक परिवेश पर चर्चा छेड़ दी थी, इससे पहले कि मै कुछ कहता, बुद्धिनाथ जी बोल पड़े– इलाहाबाद सूखता जा रहा है, जिसकी अर्द्ध स्वीकृति करते हुए मैने कहना शुरू किया– ऐसी बात है भी और नहीं भी; क्योंकि इलाहाबाद मे साहित्यकारों की खुली गुटबन्दी इसके मूल मे दिख रही है।
हमारी विस्तार मे बातें होती रहीं, तभी माहेश्वर जी ने मुझे अपनी एक कृति ‘सच की कोई शर्त नहीं’ भेंट करते हुए कहा था– भाषा की अशुद्धियाँ होंगी, फिर भी इस पर कुछ लिखकर भेजिएगा।
उन्होंने मेरे अनुरोध पर अपनी एक कविता सुनायी थी, जिसके कुछ अंश हैं :–
”मुड़ गये जो रास्ते चुपचाप
जंगल की तरफ़,
ले गये वे एक जीवित पेड़
दलदल की तरफ़।”
इन्हीं पंक्तियों के साथ अपने उस दिवंगत सारस्वत मित्र का श्रद्धापूर्वक स्मरण करता हूँ।