शुकदेव प्रसाद को उनके संघर्ष ने बनाया महान्

किसी स्वस्थ कर्म करने के लिए व्यक्ति के भीतर से इच्छाशक्ति जाग्रत् होती है, फिर उसका परिणाम और प्रभाव अत्यन्त सुखद होता है, जिसका समाज सम्मान करता आया है। इस सत्य को जीते हुए देश के प्रख्यात हिन्दीविज्ञान-लेखक और सम्पादक शुकदेव प्रसाद की आज (२४ मई) रसूलाघाट, प्रयागराज मे अन्त्येष्टि-क्रिया सम्पादित की गयी। उनका २३ मई को हृदयगत्यवरोध के कारण प्रयागराज मे निधन हो गया था। ६८ वर्षीय शुकदेव प्रसाद को मुखाग्नि उनके पुत्र डॉ० अभिषेक ने दी थी। इस अवसर पर शुकदेव प्रसाद के गाँव से उनके भाई राजेश कुमार भी आये थे, जो एक अध्यापक हैं और उनके पुत्र अनिल कुमार भी उपस्थित थे। ‘घटनाचक्र’ के सम्पादक-स्वामी संतोष चौधरी भी दाह-संस्कार को साक्षी दे रहे थे।

शुकदेव प्रसाद की संघर्ष और उत्कर्ष-यात्राओं मे सम्मिलित होनेवालों मे लगभग ४०० हिन्दी-विज्ञान-पुस्तकों के लेखक आचार्य पं० पृथ्वीनाथ पाण्डेय भी श्मशानघाट पर उपस्थित थे। उन्होंने अपने सारस्वत मंच ‘सर्जनपीठ’ की ओर से घाट पर ही एक श्रद्धांजलि सभा की, जिसमे उनके भाई राजेश कुमार ने कहा, “विज्ञानलेखन के एक युग का अन्त हो गया। वे अपने जीवन को चाहते तो स्वयं सँभालकर आज बहुत ऊँचाई पर होते। मै जब गाँव से उनके लिए खाद्यान्न लाता था तब वे कहते थे, “मै जब तुम लोग के लिए कुछ कर नहीं पाता तब इस अनाज को लेने का हक़दार कैसे हो सकता हूँ।”

सी० एम० पी० डिग्री कॉलेज, प्रयागराज मे गणितविषय के पूर्व-विभागाध्यक्ष डॉ० व्यासजी द्विवेदी ने कहा, “शुकदेव जी मेरी तरफ़ के ही थे। वे जब इलाहाबाद आये थे तब सबसे पहले मुझसे ही मिले थे। मुझे उनसे बातें करके उनमे बहुत सम्भावनाएँ दिख रही थीं, जो आगे चलकर पूर्णता मे दिखायी दी।”

आयोजक आचार्य पं० पृथ्वीनाथ पाण्डेय ने बताया, “मेरे और शुकदेव प्रसाद के अध्ययनकक्षों मे कोई विशेष अन्तर नहीं था। मै भी पुस्तकों के साथ संवाद करता था और शुकदेव जी भी। हम दोनो अपने-अपने अध्ययनकक्ष मे धूल-धक्कड़, मकड़ी-जाले तथा बेतरतीब व्यवस्था को जीने के लिए अभ्यस्त हो चुके थे। अपनी चौकी के २० प्रतिशत हिस्से स्वयं के सोने के लिए और ८० प्रतिशत पुस्तकों के शेष रह जाते थे। शुकदेव जी कुछ आलसी प्रवृत्ति के थे और मै स्फूर्तवान्, इसीलिए कथन और कर्म के स्तर पर मेरा उनके साथ विरोध बना रहता था। वे जब भी फ़ोन करते थे तब यही कहा करते थे, “पृथ्वीनाथ! आज मेरा अमुक समाचार के अमुक पृष्ठ पर लेख छपा है; पढ़ना और बताना कैसा लगा। तुम भी लिखा करो।”

आज अपने उसी मित्र को जड़वत् देखकर ऐसा लग रहा था, मानो हम दोनो मौन संवाद-जगत् मे लीन हो गये हों।”

इस अवसर पर अधिवक्ता दुर्गविजय सिंह, रामेन्द्र त्रिपाठी, आशुतोष, कमलेश, देवेन्द्र आदिक ने उपस्थित होकर अपनी भावांजलि अर्पित की।

विचारणीय और शोचनीय रहा कि इलाहाबाद मे विज्ञान-क्षेत्र से सम्बन्धित जिन लोग के बीच शुकदेव जी का उठना-बैठना रहा; बात-व्यवहार करना रहा; जिन्हें शुकदेव जी अपने हृदय मे स-सम्मान स्थान देते रहे, उनमे से एक भी व्यक्ति श्मशानघाट पर नहीं दिखा।