क्यों कर नहीं पाते हो, ‘जन’ की बातें?

● आचार्य पं० पृथ्वीनाथ पाण्डेय

आकाश में उछालते हो, ‘मन’ की बातें?
धरती पर उगा दो, कुछ ‘तन’ की बातें।
हवा उड़ान भरती है, सोच-समझकर,
मन से बात से उतरी है, मन की घातें।
फुटपाथ पर जाओ और देखा करो,
कभी जान पाये, तुम मर्म की बातें?
बेटी अपढ़ रही, न बच सकी यहाँ,
हैं बिलबिलाती रही तन की आँतें।
रात-दिन मर-मरकर, जीतीं बेटियाँ,
ग़ुज़ारतीं भूख मे, सब शर्म की रातें !
बरदाश्त से बाहर, तुम्हारी बाज़ीगरी,
क्यों कर नहीं पाते हो, जन की बातें?

(सर्वाधिकार सुरक्षित– आचार्य पं० पृथ्वीनाथ पाण्डेय, प्रयागराज; ९ जुलाई, २०२२ ईसवी।)