ज़िंदगी की रफ़्तार


तेज रफ़्तार से मैं चलती रही,
कभी पीछे मुड़ के देखा नहीं ,
करना है जीवन में बहुत कार्य,
घर – परिवार से लेकर बाहर तक
मैं तेज रफ्तार में दौड़ती रही,
तनिक भी नहीं किया आराम,
समय एक दिन वह भी! आया,
जब मुझे अपनी जिम्मेदारियों से
छुट्टी मिला,
फिर मैं , सोचने लगी –
ज़िंदगी कितनी तेज रफ़्तार से निकली गई,
सब को संभालने में, मैं अपने को भूल गई,
हो गए ,मेरे बाल भी कितने सफेद,
झुर्रियां चेहरे पर साफ़ झलक रही,
समय की रफ़्तार कभी रूकती नहीं,
थोड़ा मैं, सोचते – सोचते भावुक हो गई,
फिर संवारने लगी अपने को,
दुलार करने लगी नातिन को ,
तेज रफ़्तार से चलने के बाद,
मेरे विश्राम की घड़ी थी,
सुकून से बैठी
मैं अपने परिवार की हर सदस्यों की बात सुनती थी,
हंँसती , खिलखिलाती , ज़िंदगी की रफ़्तार चलती जाती,
मैं हर उस पल को जी लेना चाहती,
जब समय नहीं था मेरे पास,
मैं अपनों के साथ समय बिताती हूंँ,
बात करती हूंँ उसी रफ्तार की
जो गुजर गए,वह लौट के न आने वाले,
जिंदगी जियो ! थोड़ा समय निकालकर,
नहीं तो , जिंदगी की रफ्तार यूंँ ही निकल जाएगी,
फिर, मैं सोचूंगी – मैंने जिंदगी ! जिया ही नहीं।

चेतना प्रकाश चितेरी, प्रयागराज, उत्तर प्रदेश।