मैं मुसाफ़िर रात का हूँ तीरगी से पूछ लो

मनीष कुमार शुक्ल ‘मन’, लखनऊ


मैं मुसाफ़िर रात का हूँ तीरगी से पूछ लो |
अब सहर होनी नहीं है रौशनी से पूछ लो ||

राह से भटका हुआ हूँ मंज़िलों से दूर हूँ |
क़ब्र तक का फ़ासला है ज़िन्दगी से पूछ लो ||

रहगुज़र ये कौन सी है मैं नहीं कुछ जानता |
कौन सी मंज़िल चला हूँ तिश्नगी से पूछ लो ||

मैं समझ पाया नहीं तेरे इशारों का सबब |
पर नशा सा छा रहा है बे’ख़ुदी से पूछ लो ||

हुस्न तेरा चाँद को भी है दिखाता आइना |
बात ग़र मेरी न मानो सादगी से पूछ लो ||

पत्थरों के इस शहर में पत्थरों के हैं शज़र |
किस तरह ‘मन’ जी रहा है बेबसी से पूछ लो ||