एक और चेहरा

● आचार्य पं० पृथ्वीनाथ पाण्डेय

मेरे चेहरे पे जो चेहरा है,
हक़ीक़त बयाँ नहीं करता;
वह चिटकता भी नहीं।
उसका पारदर्शी चरित्र
अक्खड़ बन चुका है।
भेद की एक अबेध्य नगरी,
उसके आस-पास बसा दी गयी है।
उसमे अपने हैं; पर रास नहीं आते।
पथरायी आँखें उनमे ढूँढ़ रही हैं
अब भी अपना वह किरदार,
जिसमे कभी आदमीयत की भूख ज़िन्दा थी।
चेतन से अवचेतन तक की झलक
अब भी निर्निमेष है;
अचेतन के कपाट अवाक्-से हैं।
ध्वनि से प्रतिध्वनि का संघर्षण
अजातशत्रु-सा लक्षित होता,
परिवेश के शून्य को चीर रहा है।

(सर्वाधिकार सुरक्षित– आचार्य पं० पृथ्वीनाथ पाण्डेय, प्रयागराज; १७ नवम्बर, २०२२ ईसवी।)