”साहित्य के नोबेल एवार्ड’ से कहीं बढ़कर शिष्याशिष्यवृन्द की अगाध श्रद्धा है”– आचार्य पं० पृथ्वीनाथ पाण्डेय

साग्रह अनुरोध–

देश के सम्मानित विद्वज्जन और विश्वविद्यालयीय (‘विश्वविद्यालीय’ और ‘विश्वविद्यालयी’ अशुद्ध हैं।) प्राध्यापकवृन्द से अपेक्षा की जाती है कि वे अधोटंकित भावों और विचारों मे से सकारण अशुद्धियाँ निकालकर मेरा मार्गदर्शन करें।
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अवसर था, ‘सर्जनपीठ’ की ओर से ‘बाल-दिवस’ की पूर्व-सन्ध्या मे (‘सन्ध्या पर’ अशुद्ध है।) १३ नवम्बर को प्रयागराज मे आयोजित किया गया ‘बालरसरंग : बड़ों के संग’ बौद्धिक परिसंवाद।

वास्तव मे, उस आयोजन मे ‘अतिथि’ शब्द की सार्थकता को धन्य करनेवाले तीन बुद्धिजीवी थे, जो बाराबंकी से पधारे थे :– प्रमोदानन्द जी, पवनकुमार जी तथा लक्ष्मीराज जी। आयोजन मे सम्मिलित होने के लिए उन्हें कोई निमन्त्रणपत्र सम्प्रेषित नहीं किया गया था; परन्तु वे तीनो आयोजनस्थल पर धमक के साथ आ पहुँचे थे। उनमे से प्रमोदानन्द जी से भेंट हो चुकी थी; परन्तु पवनकुमार जी और लक्ष्मीराज जी से भेंट प्रथम बार हो रही थी। यह सूचना शिष्य रणविजय निषाद जी के माध्यम से अवश्य थी– प्रमोदानन्द जी ‘राज्य शिक्षा संस्थान’, प्रयागराज मे किसी कार्यक्रम-विशेष के संदर्भ मे आये हैं और वे घर आकर अंगवस्त्र भेंट करने के लिए इच्छुक हैं; तब तक न तो पवन जी का नाम प्रकाश मे था और न ही लक्ष्मीराज जी का।

मैने रणविजय जी को सूचित किया था कि वे उन्हें कार्यक्रमस्थल पर निमन्त्रित कर लें; इसी बहाने उनकी सहभागिता भी हो जायेगी।

आयोजन-स्थल पर एक साथ दो पुरुषों और एक महिला को देखकर, प्रमोदानन्द जी के अलावा शेष दो को पहचान नहीं पाया था; कारण कि पहली बार वास्तविक धरातल पर हम एक-दूसरे को देख रहे थे; आभासी दुनिया मे तो प्राय: हम मिलते रहते हैं। अकस्मात् आना तथा पवन जी और लक्ष्मीराज जी का अपना नाम और स्थान बताना, आत्यन्तिक प्रसन्नता का कारण बनता जा रहा था।

प्रमोदानन्द और पवन जी का शॉल ओढ़ाना और तत्पश्चात् लक्ष्मीराज जी का अचानक समीप आना और साधिकार आत्मिक बलप्रयोग करते हुए, मेरे जैकेट की ऊपरी जेब मे अपनी श्रद्धा-भाव को भरना, वस्तुत: कोई ‘सामान्य विषय’ नहीं था।

उत्सुकता और कौतुक को बाँध नहीं सका; घर आने पर देखा :– पाँच सौ रुपये के चार और सौ का एक नोट यानी कुल दो हज़ार एक सौ रुपये (₹२,१००) थे, जो नीचे लक्षित हो रहे हैं। निस्सन्देह, यह भौतिक धनराशि न होकर, आत्मिक धनराशि है, जो ‘साहित्य के नोबेल एवार्ड’ को पराभूत करती प्रतीत हो रही है।

‘गुरु-शिष्या-शिष्यपरम्परा’ मृत नहीं है; वह अदृश्य है; किन्तु जब दृश्यमान होती है तब उसकी भास्वरता (कान्ति, द्युति, प्रभा तथा चमक) के सम्मुख भौतिक चक्षु धुँधला पड़ जाता है। यह ‘शब्दशक्ति’ का समादर है; गुरुदक्षिणा को पुनरुज्जीवित (‘पुनर्जीवित’ अशुद्ध है।) करने का एक श्लाघ्य/श्लाघनीय/प्रशंस्य/प्रशंसनीय/सराह्य/सराहनीय संस्कार है।

प्राय: विद्वज्जन कहते हैं– आपके काम को देखते हुए तो लाखों रुपयों के पुरस्कार मिलने चाहिए। मेरा उत्तर होता है– देश मे मेरे इतने शिष्य हैं, जो उच्च पदस्थ हैं और उनकी गणना करना हस्तामलक नहीं है। वे जब कहते हैं– “मै जिस पदभार का वहन कर रहा हूँ, वह ‘गुरुदेव…..’ की कृपा से प्राप्त हुआ है,” तब उस भाव के सम्मुख लाखों के सभी पुरस्कार व्यर्थ हैं। मेरे पुरस्कार-सम्मान सब कुछ सूर्य-सदृश (‘सदृश्य’ अशुद्ध है।) देदीप्यमान (‘दैदीप्यमान’, ‘देद्दीप्यमान’ तथा ‘दैद्दीप्यमान’ अशुद्ध हैं।) मेरे शिष्या-शिष्य हैं।

निस्सन्देह, अतिशय भावुकता और चरम संवेदनशीलता की प्रतिमूर्ति प्रियवर शिष्या लक्ष्मीराज जी का श्रद्धा, विश्वास तथा समर्पण अनन्य है।

तीनो शिष्याशिष्य अपने मूल गन्तव्य की ओर अग्रसर रहें, कामना है।