भोजपुरिया माटी-भाषा-थाती में गहरे तक पैठे वीर कुँवर सिंह का पुण्यस्मरण

डॉ● निर्मल पाण्डेय (इतिहासकार/व्याख्याता) :

डॉ• निर्मल पाण्डेय

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हड्डी ठोस, पेसानी दमकत, पुष्ट वृषभ-कंधा बा
अस्सी के बा उमर भईल, का कहे बूढ़? अंधा बा
सिंह चलन, रवि जलत नयन, जुग सुगठित चंड भुजा बा
अईसन डोलेला ज़ईसे, डोलेला विजय पताका।।

‘कुँवर सिंह’ महाकाव्य में हरेन्द्रदेव नारायण ने कुँवर सिंह के शरीर सौष्ठव का जो वर्णन किया है, इतिहास कुरेदने पर उसने रंच मात्र भी फ़र्क़ नहीं पाएँगे।

23 अप्रैल 1858 को कुंवर सिंह ने जगदीशपुर में अंग्रेजों से मुक्ति की विजय पताका फहरायी थी, पर अस्सी वर्ष की वय में अंग्रेजी फौजों से हुए संघर्ष में तोप से छूटे गोले के छटक के आ लगे हिस्से से घायल हाथ को अपने ही हाथों तिलांजलि देकर उन्होंने जो घाव पाया था, उसी के परिणामस्वरुप तीसरे दिन उनका देहावसान हो गया। आज 26 अप्रैल को वीर कुंवर सिंह की पुण्यतिथि है, पुण्यतिथि पर स्वातंत्र्यवीर को नमन।

उनकी वीरता ऐतिहासिक लेखन के अलावा भोजपुरी लोक साहित्य में भी उसी तीक्ष्णता के साथ दर्ज़ है। हथुआ राज के राज कवि ‘तोफा राय’ जो अन्य कई राज्यों के भी राजकवि थे, कुँवर सिंह के समकालीन थे, जिन्होंने ‘कुँवर पचासा’ में कुँवर सिंह द्वारा लड़ी कई लड़ाइयों का वर्णन किया है। बीबीगंज (शाहाबाद) की लड़ाई ऐसी ही कुछ लड़ाइयों में से थी जिसमें कुँवर सिंह की जीत हुयी थी। इसमें अंग्रेजों की ओर से ‘विंसेंट आयर’ कप्तान था। देखिए, तोफा राय कैसे कहते हैं: ‘खलबल भईले तब कुँवर सिंह सेना बीच/बीबीगंज आई आयर बाग़ी, पर टूटलेनी नू/…टोप आ बंदूकि उगिले लाल आगि ओने से/ त एने टोंटा-हीन ही बंदूकि लाठी बनलिनि नू/ आरा आ गांगि के लड़ाई सब सोखि लेलसि/ टोटा बरूदि जे दानापुर से लवलनि नू/ सेनानी कुँवर त चिंतित ना भईल रंच/बंक करि नैन सेना जंगल धरवलनि नू…’

एक और बानगी देखिए: ‘बाबू ग़जब फेंके तरुआरि, बाघे अस टूटि परे/ टपाटप बाजे ओके टाप, छपा-छप मुड़ी गिरे…’ शौर्य से भरीं ये पंक्तियाँ भोजपुरी नाटक ‘कुंवर सिंह’ के लिए लिखे गए एक गीत की हैं, जो दुर्गाशंकर प्रसाद सिंह की ‘भोजपुरी के कवि एवं काव्य’ संग्रहित है।

ऐतिहासिक दृष्टि से देखा जाय तो कुंवर सिंह पर अब भी अनदेखे या कमदेखे बहुतेरे दस्तावेज संग्रहालयों में मौजूद हैं, उन्हें फिर से कुरेदे जाने की आवश्यकता है। जी. डब्ल्यू. फ़ॉरेस्ट ‘आ हिस्ट्री ओफ़ इंडियन म्यूटिनी’; गिबर्न सिवेकिंग की ‘आ टर्निंग प्वाइंट इन द इंडियन म्यूटिनी’; जॉन जेम्स हॉल्ज़ की ’आरा इन 1857’; पॉल ब्रोका के पत्राचार, जॉर्ज ए ग्रियरसन की ‘बिहार पेज़ंट्स लाइफ़’ एलएसएस ओ’मैली कृत ‘शाहाबाद के गज़ेटियर’ समेत बहुतेरे ऐतिहासिक साक्ष्य कुँवर सिंह की वीरता और अविस्मरणीय ऐतिहासिक साक्ष्यों से हमारा परिचय कराते हैं।

अठारह सौ सत्तावन के स्वातन्त्र्य संघर्ष के शतवार्षिकी वर्ष (1957) में भारतीय दृष्टिकोण से काली किंकर दत्त ने कुंवरसिंह पर ऐसे ही प्रामाणिक सरकारी दस्तावेजों पर आधारित दो बढ़िया किताबें लिखी हैं। एक, ‘अनरेस्ट अगेंस्ट ब्रिटिश रुल इन बिहार, 1831-1859’ और दूसरी है, ‘बायोग्राफी ऑफ़ कुंवर सिंह एंड अमर सिंह’। अपेंडिक्स के रूप में सुलहनामा, 1845 के प्रतिरोध का प्लाट, शाहाबाद और जगदीशपुर आर्मेरी, संस्कृत और मैथिलि में कुंवर सिंह की प्रशस्ति सहित 1857-58 के भारतीय प्रतिरोध और ग़दर के दौर के बाद के पांच-एक सिपाहियों के आँखों-देखे बयान कुंवर सिंह के अप्रतिम संघर्ष और वीरता से रूबरू करते हैं। इन दोनों किताबों का फिर से पुनर्पाठ होना चाहिए।

साथ ही, मेरा मानना है कि जनमानस में बसे कुंवर सिंह सम्बन्धी लोकगीत, फ़ाग, कथा, गाथा संग फुर्तुल्ली स्वरुप छोटी-छोटी पुस्तिकाओं में वर्णित कुंवर सिंह के इतिहास को अंग्रेजी के साथ हिंदी और हो सके तो भोजपुरी में भी लिखा जाना चाहिए। आखिर भोजपुरी भी तो आठवीं अनुसूची में शामिल होने की लड़ाई लड़ रही। भोजपुरी समाज का साहित्य, उसका इतिहास, और उसके नायक ही इस लड़ाई में लगी वर्तमान पीढ़ी को इस झंझावत से उबारने की पतवार थमाएंगे।

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नोट: संलग्न चित्र विजयोत्सव पर्व के उपलक्ष्य में 23 अप्रैल 1966 को जारी ‘कुंवर सिंह स्मारक डाक-टिकट’ के फर्स्ट डे आवरण का है, जिसपर स्मृति-सन्देश के साथ 2016 में जारी एक अन्य डाक-टिकट को चस्पा कर दिया गया है.