
● आचार्य पं० पृथ्वीनाथ पाण्डेय
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गत रविवार को पत्नीसहित बेटियाँ लखनऊ आयीँ। तीनो की ज़िद थी, ‘लुल्लू माल’ घूमने की। पत्नी ‘इमामबाड़ा’ की रट लगा रखी थीँ। मैने सोचा– भावना का सम्मान करना चाहिए और “नाम बहुत पर दर्शन थोड़े” का भी अनुभव कराना चाहिए। छोटी बेटी ने टैक्सी’ किराये पर ले ली। मै भी पहली बार उक्त माल मे पहुँचा था, यद्यपि इस बीच, लखनऊ कई बार गया और आया।
बहुत लोग सोच और जान रहे होँगे कि जिस नाम (लुल्लू माल) से माल है, वह उसी व्यक्ति का होगा, जिसने उस माल को शुरू किया होगा; मगर नहीँ। ‘लुल्लू माल’ किराये की एक ऐसी व्यावसायिक जगह है, जहाँ कई कम्पनियाँ, ब्राण्ड, एजेँसी आदिक ने अपने (यहाँ ‘अपनी’ अशुद्ध है।) आवश्यकतानुसार किराये पर जगह लेकर अपनी-अपनी दुकाने सजा दी हैँ।
हाँ, वहाँ एक एकरूपता इस बात की है कि कपड़े, फ़ैशन आदिक के सामानो की क़ीमत के अन्त मे 90 रुपये अवश्य लिखा रहता है; जैसे– Rs.1,290। आपमे से कुछ को अवश्य स्मरण होगा कि ‘बाटा कम्पनी’ जूतोँ के मूल्य अंकित करते समय अन्त मे 95 रुपये लगा देती थी; जैसे– Rs. 195।
बच्चोँ की जो साधारण टी-शर्ट अधिकतम २०० रुपये मे ख़रीदी जा सकती है, उसका मूल्य ९९० रुपये था। जिस फटहे-गन्धैले जीन्स पैण्ट की ओर देखने से ही घृणा उत्पन्न हो जाती है, उसका मूल्य १,६९० रुपये था। बड़ोँ की टीशर्ट, जो अधिकतम २०० रुपये मे ख़रीदी जा सकती है, उसका मूल्य १,४९० रुपये था। जिस अति सामान्य कोट का मूल्य ५,९९० रुपये था, उससे बेहतर (थ्री-पीस का कोट) अधिकतम १,००० रुपये मे उपलब्ध है। २५-२७ सें० मी० के मोज़े २९० रुपये, पूरी बाँह की कॉलरदार टीशर्ट १,९९० रुपये तथा फैँसी जालीदार टोप (हैट) का मूल्य २,४९० रुपये था। यह तो आँखोँ-देखा एक छोटा-सा उदाहरण है। अब विचार कीजिए, ‘लुल्लू माल’ मे किस स्तर की लूट है?
मै डर रहा था कि कहीँ ‘बच्चे’ कुछ ख़रीद न लेँ। जैसे ही दोनो बेटियाँ और पत्नी किसी कपड़े वा अन्य वस्तुओँ पर हाथ लगाती थीँ वैसे ही मै बोल पड़ता था :– देखना! इससे दसगुने सस्ते अपने दिल्ली के अगले प्रवास मे ख़रीदकर लाऊँगा, फिर जब वे आगे बढ़ जाती थीँ तब शान्ति मिलती थी।
तीनोँ को न तो बाज़ार की भाषा की समझ है और न ही क्रयनीति का बोध। रुपये फेँकने मे दोनो बेटियोँ को अपरम्परागत कौशल हासिल है। छोटीवाली (आर० जे०) को साहित्यिक उपन्यास पढ़ने का शौक है। उसका दर्शन भी मुझसे बहुत अलग-थलग है– मै पुस्तकोँ के मूल्य मे कमी नहीँ कराती। वहीँ पुस्तकोँ की दुकान थी। उसने वहाँ से अमृता प्रीतम की बहुत पतला पेपर बैक-संस्करण उपन्यास २०० रुपये मे ख़रीद लिया, जोकि ५० रुपये मे मिल जाता है।
बड़ी बेटी उसी माल मे खुले होटलनुमा एक दुकान मे ले गयी और मुझसे बिना पूछे कम्प्यूटरीकृत एक उपकरण से खाद्यपदार्थ का ‘ऑर्डर’ कर आयी। मेरी साँस ऊपर-नीचे हो रही थी; क्योँकि मै ‘जंक और फास्ट फूड’ का घोर विरोधी हूँ; डोसा, इडली, छोला-भटूरा, चाय, कॉफ़ी से अधिक कुछ नहीँ, उस पर वहाँ की वस्तुओँ की क़ीमत देख-देख मनोवैज्ञानिक डर बैठ चुका था। बाद मे ज्ञात हुआ कि वह दुकान ‘मैकडोनाल्ड’ की है; साँस संतुलित होने लगी। तीनोँ ने बर्गर और पेस्टी का सुख लिया और मैने मठरी-सी दिखनेवाली गरम और मुलायम नमकीन और पेस्टी का।
वहाँ से बाहर निकले तब पत्नी का ‘इमामबाड़ा’ जाने का विचार हवा हो चुका था; बुरी तरह से थक चुकी थीँ। उन्हेँ भूख भी लगी थी। छोटी बेटी ने टैक्सी किराये पर ली और हम होटल पहुँचे, फिर वहाँ से सीधे घर। पत्नी घर पहुँचते ही पलंग पर भहरा गयीँ।
उक्त परिदृश्य मे मेरी भूमिका ‘अतिथि’ की दिख रही थी, जबकि लोकव्यवहार को समझा जाये तो तीनो मेरी अतिथि थीँ; मगर उन्होँने मुझे ‘अतिथि’ बनाकर छोड़ दिया। वे सब ‘आतिथेय’ की भूमिका मे थी। आयोजनो मे अतिथि बेचारा ‘पराश्रित’ रहता है।
कुछ वर्ष पूर्व पत्नी के साथ दिल्ली के पालिका बाज़ार गया था। पत्नी को एक सूट पसन्द आ गया था। विक्रेता ने उसका मूल्य १,२०० रुपये बताये थे। पत्नी ने कहा, ”ले लिया जाये।” मैने पत्नी से कहा, ”उसे ढाई सौ रुपये बोल दो; बोलने के बाद वहाँ से बढ़ने लगना।” पत्नी ने कहा, “मुझे लज्जा आती है, इतना कम कराने पर। सौ-पचास कम कर दे, ठीक है।”
मै इस मुआमले मे लज्जा को ‘कालकोठरी’ मे क़ैद करके बाहर निकलता हूँ। मैने दुकानदार से कहा, “हम ढाई सौ रुपये देँगे; देना हो तो बोलो”, फिर पत्नी को बतायी नीति का पालन करते हुए, आगे बढ़ लिया। पीछे से आवाज़ आयी, “ढाई सौ की कसम खा लिये हैँ क्या; सुनिए तो।” मै जहाँ पर था, वहीँ से बोला, “ढाई सौ से एक रुपया अधिक नहीँ।” वह दुकानदार समझ गया था कि उसकी दाल गलनेवाली नहीँ।
दुकानदार ने पासे फेँकने शुरू कर दिये थे– १,०००, ८००, ६००, ५००, ४००। “अच्छा, ले जाओ भाई।”
पत्नी लगभग १० मीटर दूर जाकर खड़ी थीँ।
मै किसी महाविजेता की तरह बोल पड़ा, “देखो! ढाई सौ मे ले लिया।” उस सूट को उन्हेँ थमा दिया। सकुचाई- कठुआई बेचारी पत्नी को लगा, मानो वे ‘दिवा-स्वप्न’ का अनुभव कर रही होँ।
बेचारा सूट! पत्नी ने रगड़-रगड़कर पहना; मगर वह बेशर्म अब भी ज़िन्दा है।
(सर्वाधिकार सुरक्षित– आचार्य पं० पृथ्वीनाथ पाण्डेय, प्रयागराज; २४ अप्रैल, २०२५ ईसवी।)