‘राष्ट्रभाषा के सवाल’ पर अटल जी और आडवाणी जी तक को पाखण्डी कहा था, शैलेश मटियानी जी ने– डॉ० अभय मित्र

शैलेश मटियानी के निधन-दिनांक २४ अप्रैल पर 'सर्जनपीठ' की विशेष प्रस्तुति

देश के विलक्षण साहित्यकार, चिन्तक और विचारक शैलेश मटियानी के निधन-दिनांक के पूर्व-दिवस मे २३ अप्रैल को ‘सर्जनपीठ’, प्रयागराज की ओर से ‘सारस्वत सदन’, आलोपीबाग़, प्रयागराज से एक राष्ट्रीय आन्तर्जालिक बौद्धिक परिसंवाद का आयोजन किया गया था, जिसका विषय था, ‘साहित्य-जगत् का उपेक्षित योद्धा शैलेश मटियानी’।

मटियानी जी के चिर-परिचित प्रकाशक डॉ० अभय मित्र (प्रयागराज), जो स्वयं विद्वान् और लेखक भी हैँ और जिन्होँने मटियानी जी की ग्यारह पाण्डुलिपियोँ का प्रकाशन किया था, ने बताया, “मटियानी जी के कुछ समकालीन लेखक उन्हेँ ‘कसाई’ कहते थे। वे मानते थे कि मटियानी जी भाषा को कीमा की तरह कूटते थे। यही कारण है कि लेखोँ, कहानियोँ, उपन्यासोँ के साथ उनके आत्मकथा वृत्तान्तोँ और बालसाहित्य तक मे उनकी भाषा पर्याप्त वाचाल है। जिन्होँने मटियानी जी को पढ़ा है, वे जानते होँगे कि उन्होँने अपनी विचारधारा से कभी कोई समझौता नहीँ किया। ‘राष्ट्रभाषा का सवाल’ उठाते हुए उन्होँने अटल जी और आडवाणी जी तक को पाखण्डी कहा। ‘राष्ट्रपिता’ और ‘राष्ट्रपति’ जैसे शब्दोँ पर उनके तेवर बड़े टेढ़े रहते थे। उन्होँने होटलोँ मे प्लेटेँ धोने के साथ ही समकालीन अनेक लेखकोँ को भी पटक-पटक कर धोया। राजेन्द्र यादव-जैसे लेखकोँ के साथ ही धर्मवीर भारती, दूधनाथ सिँह-जैसोँ पर उनकी टिप्पणियाँ देखने-लायक़ हुआ करती थीँ।”

प्रकाश मनु (साहित्यकार-समीक्षक), फ़रीदाबाद, हरियाणा ने बताया, ”हिन्दी के ऐसे महान् कथाकार के संघर्षों की पूरी कथा मेरी आँखों के आगे है। बरसों तक उनके साथ रहकर बहुत कुछ देखा-जाना। बहुत-सा तो ख़ुद उनके मुँह से सुना भी; पर क्या कहूँ-कैसे कहूँ? क़लम थरथराता है। कभी बाबा नागार्जुन ने कहा था, ‘’हिन्दी को एक गोर्की मिला था, पर हिन्दी वालों ने उसकी कद्र नहीं की।’’ हालाँकि मुझे लगता है, मटियानी जी केवल गोर्की नहीं, वे एक साथ हिंदी के गोर्की भी थे और चेखव भी।”

जया केतकी (सम्पादक– अक्षरा, मध्यप्रदेश राष्ट्रभाषा प्रचार समिति, भोपाल ने बताया, ” किसी साहित्यकार की रचनाओँ को पढ़ना सहेजना जितना ज़रूरी है उतना ही ज़रूरी है, उसके नाम को अमर रखना। अनेक संस्थाएँ इसमें सहयोगी हो सकती हैँ। एक परिश्रमी सहज-सरल व्यक्तित्व की कलम से निकली रचनाएँ जन-जन तक पहुँच कर और शैलेश मटियानी जी के नाम को रेखांकित करने का काम कर रही है, मध्यप्रदेश राष्ट्रभाषा प्रचार समिति। यही नहीं, संस्था की पत्रिका ‘अक्षरा’ का एक विशेषांक भी श्री शैलेश मटियानी के व्यक्तित्व और कर्त्तृत्व पर केन्द्रित किया गया है। अपनी फक्कड़ता और मुखर व्यक्तित्व के लिए चर्चित रहे शैलेश मटियानी अपने आरम्भिक दिनों की पीड़ा के लिए भी पहचाने जाते हैं। उनके जीवन की सार्थकता इसी में है कि उनके द्वारा किये गये रचनाकर्म को शोधार्थियों और सुपात्र पाठकों के बीच एक प्रकार की पहचान मिल रही है।”

आयोजक, भाषाविज्ञानी आचार्य पं० पृथ्वीनाथ पाण्डेय ने कहा, मटियानी जी जिन-जिन मार्गोँ पर अपने दुस्साहसिक पग धरते गये, वे उन्हेँ मृत्यु के समीप तक ले गये; परन्तु उनके भीतर की जिजीविषा और जिगीषा ने उन्हेँ सम्बल प्रदान किया। इस तथ्य को समझने के लिए उनकी जीवनशैली और उनके समग्र साहित्य के वैविध्य का परिशीलन करना अनिवार्य हो जाता है। एक अति सामान्य-सा जीवन जीनेवाले व्यक्ति की विचारशक्ति इतनी धारदार थी कि साहित्य-जगत् की हस्ती कहलानेवाले प्रबुद्धजन भी उस तेवर को सँभाल न सके।”

 शैलेश मटियानी जी के सुपुत्र राकेश मटियानी का कहना है, "पिता जी जिस जीवन-मूल्य की रक्षा करने के लिए अपना सर्वस्व होम कर दिया था, हम उसी मूल्य की रक्षा के लिए प्राणपण से तत्पर हैँ। उनका कर्त्तव्यबोध हम सबका पथप्रदर्शक है।''

हल्द्वानी की स्वतन्त्र लेखिका अमृता पाण्डे ने कहा, "कथाकार शैलेश मटियानी ने संघर्ष का क़लम पकड़कर साहित्ययात्रा शुरू की और पथ-बाधाओँ को पार करते हुए, देश-देशान्तर की सीमाएँ लाँघ गये। वह एक ओजस्वी और मुखर वक्ता भी थे। उनका कालजयी साहित्य सीमा से परे है।" 

प्रो० संतोष चतुर्वेदी (कवि-सम्पादक 'अनहद', प्रयागराज) ने बताया, "प्रेमचन्द की परम्परा के पश्चात् नयी कहानी-आन्दोलन अपनी नयी बयार लेकर आया। शैलेश मटियानी इस नयी कहानी- आन्दोलन के अग्रणी लेखकों में से एक थे। उनके सोच का दाइरा विस्तृत था, जो उनकी कहानियों में स्पष्ट रूप से दिखायी पड़ता है। कहानी और उपन्यास के क्षेत्रोँ में उन्होंने जो काम किये, वे हमें चकित कर देते हैं।''
लेखक देवेन्द्र मेवाड़ी, दिल्ली ने कहा, ''मटियानी जी से अंतिम दिनों में पंत हॉस्पिटल में मुलाकात हुई थी। उनकी गंभीर अस्वस्थता का समाचार मिलने पर तरुण विजय और मैं मिलने गए थे। उस समय भी वे बड़े उल्लास के साथ मिले और खुश हुए। उनके अंदर की जिंदादिली और माटी से जुड़ाव उनके लेखन में जीवंत हो उठता था। वे उत्तराखंड की विभूति हैँ।''

अल्मोड़ा से शिक्षिका डॉ० दीपा गुप्ता ने कहा, ” शैलेश मटियानी का जीवन इस बात की गवाही देता है कि जीवन के अभाव आपके रास्तों को नहीं रोक सकते हैं, समय लगता है; मगर जो लेखक इन कठिनाइयों से जूझते हुए कलम उठाता है, उसके लेखन में इतना उजाला होता है कि उसके आलोक में जीवन की सारी कालिमा धुल जाती है। बचपन से ही माँ-बाप की स्नेह छाया से वंचित रोटी और छत के लिए दर-दर ठोकरें खाने वाला एक जरूरी लेखक जिसने जब जो लिखा उसमें सच्चाई थी, कटु सच्चाई।”

अध्येता, रचनाकार और शिक्षक डॉ० पवनेश ठकुराती (अल्मोड़ा) ने कहा, “मटियानी जी के कथासाहित्य में समाज के दलित, मैले-कुचैले, दीन-हीन और अभावग्रस्त जनजीवन का विशद और विस्तृत चित्रण हुआ है। इसका एक कारण उनका स्वयं का जीवन है, जो उन्होंने भोगा उसी को यथार्थ रूप में अपने कथा-साहित्य में चित्रित किया। निर्धनता, उपेक्षा, तिरस्कार, अपमान, दु:ख-दर्द और विपुल संघर्ष का दंश, जो उन्होंने अपने जीवन में झेला, वही उनके कथा-साहित्य के चरित्र में भी उभरकर सामने आया।”

अरविन्द कुमार मौर्य ‘अनन्त’ (शैलेश मटियानी-साहित्य- अध्येता और सहायक प्राध्यापक), प्रयागराज ने कहा, “मटियानी जी के साहित्य मे तीन चीज़ेँ सर्वत्र दिखायी देती हैँ :– भूख, स्त्री और मृत्यु।.इस प्रकार हम देखते हैँ कि उनका सारा जीवन संघर्ष करते हुए ही व्यतीत हुआ है। अपने सम्पूर्ण जीवन में शैलेश मटियानी जी एक योद्धा की भाँति संघर्ष करते दिखायी देते हैँ। ऐसे में, यदि मटियानी जी को ‘साहित्य का योद्धा’ कहा जाये तो यह अतिशयोक्ति नहीं कहलायेगी।”

जयप्रकाश पाण्डेय (युवा लेखक और वरिष्ठ राजभाषा अधिकारी, ओ० एन० जी० सी०), देहरादून ने कहा, “शैलेश मटियानी हिन्दी कथा-साहित्य की उस धारा के प्रतिनिधि हैं, जहाँ संवेदना किसी लोकलुभावन भाषा वा बौद्धिक प्रदर्शन की मोहताज नहीं होती। वे उन विरल कथाकारों में हैं जिनकी कहानियाँ उत्तराखंड के ऊबड़-खाबड़ भूगोल से निकलती हैं और महानगरीय समाज की सबसे हाशिये पर खड़ी मनुष्यता तक पहुँचती हैं। उनकी लेखनी में पहाड़ की पीड़ा है, श्रम की गंध है और उस स्तब्ध असहमति की प्रतिध्वनि है, जो अक्सर इतिहास के हाशिये में छूट जाती है।”