तिल-तिल कर मरता पर्यावरण

पर्यावरण दिवस की सार्थकता तभी है जब धरातल पर काम होता है। मात्र अखबार मे फ़ोटो व न्यूज़ देना ही हमारा उद्देश्य नहीं होना चाहिए। धरती का बढ़ता तापमान प्रकृति के बिगड़ते सन्तुलन का सूचक है। वैश्विक सूचकांक के आधार पर प्रति व्यक्ति 450 पेड़ आवश्यक हैं किन्तु भारत मे यह आंकड़ा 200 से नीचे है। पेड़ कटते जा रहे हैं। सड़कों का जाल बिछ रहा है। इस भयावह पर्यावरण त्रासदी के लिये केवल और केवल जनता नहीं; सरकार भी जिम्मेदार है।

पिछले दो वर्षों के दौरान हरदोई मे गंगा एक्सप्रेसवे और राष्ट्रीय राजमार्ग के लखनऊ-पलिया खण्ड-निर्माण मे अनुमानतः पाँच लाख छोटे-बड़े पेड़ काटे गये। नगरविस्तार, ग्रामीण आबादीविस्तार के साथ कृषिक्षेत्र-विस्तार और औद्योगिक इकाइयों की स्थापना के नाम पर भी प्रति वर्ष 10 लाख से 15 लाख वृक्षों के काटे जाने के अनुमान है। इस तरह सरकारी संरक्षण मे ही प्रति वर्ष जनपद मे लगभग 25 लाख वृक्षों की हानि होती है। क्या सरकारी तन्त्र ने इसके सापेक्ष उचित संख्या मे नये पेड़ तैयार किये? यदि ऐसा नहीं हो पाया तो पर्यावरण दिवस का सरकारी आयोजन ढकोसले के अतिरिक्त कुछ नहीं है।

जब लोग जानते हैं कि प्लास्टिक पर्यावरण के लिये घातक है तब इसका निर्माण सरकारी नियमो के अधीन क्यों हो रहा है? सरकार प्लास्टिक के प्रयोग को हतोत्साहित करने के लिये कौन सा विकल्प उपलब्ध करा रही है? अपने कुकृत्यों को छिपाने के लिये जनता पर दोष मढ़ देना आसान है। प्लास्टिक प्रदूषण से सब दुःखी हैं। मूक पशु इन्हें खाकर मर रहे हैं।

पवित्र नदियाँ गंगा, गोमती, यमुना, क्षिप्रा, नर्मदा आदि सभी मैली हो गई है। करोड़ो रुपये जिन नदियों को साफ करने के लिए खर्च किये गये वह कहाँ गये, क्योंकि नदियाँ तो वैसी ही हैं? गंगा नदी मे ही प्रति 100 मिलीलीटर जल मे 60000 फ्रेकल कोलीफॉर्म बैक्टीरिया होते हैं जो मानव-स्वास्थ्य हेतु हानिकारक हैं। गंगा में अनुमानित प्रतिदिन 1 बिलियन लीटर कच्चे अनुपचारित सीवेज को प्रवाहित किया जाता है।

जब तक सरकार अपनी जिम्मेदारी तय नहीं करती, पर्यावरण तिल-तिल कर मरता रहेगा और अभिशप्त मनुष्य बीमारियों को लादे चलती-फिरती लाश बना रहेगा।