विडम्बनावश!

● आचार्य पं० पृथ्वीनाथ पाण्डेय

चिन्दी-चिन्दी रातें पायीं,
फाँकों में मुलाक़ात रही।
मुरझायीं पंखुरियाँ देखीं,
सहमी-सकुची बात रही।
बेमुराद आँसू हैं छलके,
याद पुरानी घात रही।
दुलराते बूढ़े ज़ख़्मों को,
बची-खुची बस रात रही।
दौड़ा-धूपा हाथ न आया,
परवशता की लात रही।
भूखा पेट मौन रह गया
सूखी-सूखी आँत रही।
शातिर की चालों मे देखी,
ठगी-ठगी शह-मात रही।

(सर्वाधिकार सुरक्षित– आचार्य पं० पृथ्वीनाथ पाण्डेय, प्रयागराज; ४ अक्तूबर, २०२२ ईसवी।)