फिर बिखर गई वह शून्य में

बदसूरत थी,
खूबसूरत न थी।
सड़ गए थे पंचतंत्र जैसे,
बदबू आ रही थी शरीर से।
न जाने उन दरिंदों को,
खुशबू लगी किस तंत्र की।
लोग जिनसे डरते हैं, पूजते हैं,
ब्रह्मबाबा, डीह बाबा, शहीद बाबा के पास।
घने जंगलों में, पटरियों के किनारे
पास की बस्तियों से,
एक छोटी बिट्टी,
जिसको न समझ थी इस होली की,
जो जन्मी थी पिछली दस होली को,
निर्दोष थी, बस दोष वही था,
लाई गई।
बहुत चिल्लाई, गिड़गिड़ाई बहुत,
वादा किया ना लूंगी, जनम फिर इस धरा पर।
बस आज मुझको बख़्श दो,
सुन रहे थे आवाज़ उसकी,
शून्य-अरण्य-प्रेत-देवता
रो रही थीं आत्मा उसके उम्र की,
कह रहीं थीं जैसे वे,
जन्म क्यों लिया उस धरा पर,
मर गई इंसानियत जहान पर।
आ जाओ-आ जाओ इस सूक्ष्म में,
देखो हम कितनी मस्त हैं।
दौड़ाई गई, पटकी गई,
कुश, सरपत, झाड़ियों की सेज पर,
धंस रहे थे नुकीले कुश उसके बदन में,
जैसे दे रहा सजा जल्लाद उसके जन्म की।
पीटी गई, दबाई गई, मसली गई,
उन दैत्यों की बाहों में बारी-बारी।
बर्फ बनती गई, पिघलती गई,
भाप बनकर उड़ती गई, आवाज़ सुन्न होती गई।
फिर बिखर गई वह शून्य में॥

कविराज
इलाहाबाद विश्वविद्यालय

कविराज
इलाहाबाद विश्वविद्यालय