एक कठोर गुरु का ‘मांगलिक’ स्वभाव

गुरु 'गुरु' है। जैसे ही कोई शिष्य यह विचार कर विद्या ग्रहण करता है कि वह अपने 'गुरु' की सिद्धि का अतिक्रमण कर, स्वयं को सिद्ध करेगा वा कर लेगा वैसे ही उसका चारित्रिक स्खलन आरम्भ होने लगता है और उसकी विद्या का क्षरण आरम्भ होने लगता है। गुरु के साथ उसका समय-सत्य दृष्टिबोध यात्रा करता रहता है, जिसके मूल मे लोकमंगलकारी भाव सन्निहित रहता है।      
 
उचित-अनुचित का भान करते हुए, गुरु का शास्त्रीय पक्ष  'कवच-कुण्डल' के रूप मे उसके पास संरक्षित-सुरक्षित रहता है। द्रोणाचार्य ने अर्जुन को अपना परम शिष्य मानते हुए भी सम्पूर्ण विद्या का ज्ञान नहीँ कराया था; क्योँकि उन्हेँ ज्ञात था कि शिष्य की अहम्मन्यता अवसर देखकर प्रकट हो जायेगी, जो उद्धत रूप मे वातावरण को प्रभावित करेगी। यही कारण था कि द्रोणाचार्य को पराजित करने मे विफल अर्जुन को 'छल' और 'कपट'-आचरण का सहारा लेना पड़ा था।
 
मेरे समस्त शिष्याशिष्यवृन्द! गुरु के प्रति 'भक्तिभाव' के साथ प्रस्तुत होने की 'कला' स्वयं मे विकसित करो। जो गुरु बाहर से अत्यन्त कठोर होता है, वह भीतर से अतिशय नमनशील होता है। 'नारियल' का स्वभाव तुम सब ने देखा, समझा तथा अनुभव किया होगा।
  
कोई भी वास्तविक गुरु क्योँ कठोर स्वभाव धारण करता है, इस विषय को समझना होगा। 
  
गुरु प्रतिपल उस प्रकृति से ग्रहण करता आ रहा है, जो अपना सब कुछ लुटाना जानती है। यही कारण है कि गुरु की ग्रहणशीलता मे प्रकृति की 'उन्मुक्त' कारयित्री भावना अन्तर्निहित रहती है।
   
वास्तविक गुरु की शिष्य-शिष्याएँ आत्मिक, बौद्धिक तथा मानसिक संवृद्धि का अवसर पाती हैँ और सहज रहकर अभ्युदय-पथ पर डग भरती हैँ तो उस गुरु का वक्षप्रान्त चतुर्गुणित हो जाता है, जो उसकी 'वास्तविक गुरुदक्षिणा' होती है।

(सर्वाधिकार सुरक्षित– आचार्य पं० पृथ्वीनाथ पाण्डेय, प्रयागराज; २१ जुलाई, २०२४ ईसवी।)