अनल का दहन

घट में देखा तो कितनी सहज शान्ति है
चले स्वच्छन्द मन से तो प्रखर क्रान्ति है
है बड़ा न कोई भी मुझसे यहाँ
तप्त अरुण अनल को अभी भ्रान्ति है।
शान्त सरल जो सर था सलिल से भरा
जिसके आँचल से सारी हरित है धरा
थी छिड़ी ही जंग अनल से अभी
तपते दिनकर ने आकर प्रलय कर दिया।
घन-श्याम की छाई घनघोर घटा
झुककर पवनों ने भी जिन्दगी की अता
साथ पवनों का उसको था जब-जब मिला
ऊष्म ज्वाला के अधरों पर थी निराली छटा ।
मन ही मन में अब उसने प्रण कर लिया
मुरझे सुमनों ने अपना कण-कण जिया
बूँदें आकर गिरीं जब धरा पर तो फिर
खेत-खलिहानों को भी हरा कर दिया।
पंछियों की मधुर चहचहाहट भी थी
दादुरों की सरों में छपछपाहट भी थी
और जाने थी कितनी उमंगे नई
प्रेमियों के मिलन की झिलमिलाहट भी थी।
जाने कितने दिनों तक सिला ये चला
तप्त मरुथल को भी अब गिला हो गया
एक दिन जब चली बूँद अनल के निकट
खुद ही खुद में अनल का दहन हो गया।
          -अश्वनी पटेल, बालामऊ, हरदोई