● आचार्य पं० पृथ्वीनाथ पाण्डेय
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उखाड़ फेँको
उस बूढ़े बरगद को,
जो समावेशी चरित्र भूलकर
आत्म-केन्द्रित हो चुका है।
उसका समन्वयवादी चरित्र
एकपक्षीय बनकर रह गया है।
वह अन्य बीजोँ के
अंकुरण होने,
पौधोँ के पनपने और वृक्ष होने तक का
मार्ग–
अवरुद्ध कर, फन काढ़े बैठा है।
कुचल डालो उसके फुँफियाते फन को;
उसके भीतर के उस ज़ह्र को
खीँच लो सँड़सी से,
जो डँसने के बाद
तन-मन मे
विषैली आग भरता आ रहा है।
उसकी आवारा और बेलगाम होतीँ जड़ेँ,
धरती को अपनी खेती बना ली हैँ।
वे दीवारोँ से संघर्षण कर;
उसे फाँफर१ बनाकर
हमारे घरोँ के भीतर घुसपैठ कर,
चूल्होँ तक पहुँच चुकी हैँ।
जड़ेँ हमारी हँसी-ख़ुशी मे
दरारेँ पैदा करती आ रही हैँ।
उसकी जड़ोँ ने,
सुनना, सूँघना और चुगुलख़ोरी करनी सीख ली हैँ।
इससे पहले कि वे हस्तक्षेप की मुद्रा मे दिखेँ,
मट्ठा बनाने की कला विकसित कर लो।
मनबढ़ होतीँ निरंकुश,
निर्दय जड़ोँ का बने रहना,
सर्वघाती क़दम सिद्ध हो सकता है।
उस अधिनायक बरगद की मंशा,
निर्विकल्प बनकर
एकच्छत्र साम्राज्य स्थापित करना है।
वह नीचे से ऊपर तक
स्वयं की ही उपस्थिति चाहता है।
उसकी बेईमान चाहत,
हर बस्ती की दीवार मे
दीमक की भूमिका मे बने रहना है।
उठाओ मिट्टी के तेल से
भरे हुए बरतन को!
उसकी पामर प्रकृति और प्रवृत्ति की
मटमैली पंक्ति बनते ही,
उसे इतना लीप डालो;
रगड़कर पोँछ डालो कि–
उसका आत्मश्लाघापूर्ण भूगोल-इतिहास
ढूँढ़े ढूँढ़ा न जा सके।
उसका "एकोSहं द्वितीयो नास्ति" चरित्र,
एक ऐसा कुष्ठ अध्याय
बनकर रह जाये कि–
सुलझे लोग उसके पृष्ठ को
पलटने का विचार करते ही
घृणा का अनुभव करने लगेँ।
शब्दार्थ :– १फैलाव
(सर्वाधिकार सुरक्षित– आचार्य पं० पृथ्वीनाथ पाण्डेय, प्रयागराज; २ दिसम्बर, २०२४ ईसवी।)