निजीकरण के दौर मे टारगेट अचीव करना ही एक लक्ष्य

आजकल निजीकरण का दौर है। इसलिए सबको टारगेट अचीव करना पड़ता है। नहीं तो व्यक्ति को ‘फ्लावर’ देने की जगह ‘फायर’ कर दिया जाता है।

बहुत पहले नहीं, बस आज से दो-तीन दशक पहले तक शादियां कितनी फुर्सत से हुआ करती थी। मान लो कि आज शाम को बैलगाड़ी या ट्रैक्टर से बारात पंहुची तो उस दिन शाम को द्वारचार और रात्रि भोज (पक्का भोजन यानी पूड़ी-सब्जी) होगा। अगले दिन फिर ब्याहाभात (कच्चा भोजन यानी दाल, चावल, रोटी, बरा आदि) और विवाह। फिर उसके अगले दिन थैली-कलेवा (खिचड़ी) और तब जा के दुल्हन की विदाई होती थी।

मतलब कि सब कुछ बड़े आराम से , बड़ी तसल्ली से हुआ करता था। दूल्हा और दुल्हन के परिवार के अलावा बाराती और घराती भी एक दूसरे से इत्मिनान से मिलते थे । आपस मे परिचित होते थे, हास- परिहास करते थे। लोग एक दूसरे को, उनके खान-पान , बात-व्यवहार, रीति रिवाजों को समझने की कोशिश करते थे। विवाह कोई टारगेट नहीं बल्कि एक प्रमुख, पुनीत संस्कार हुआ करता था।

लेकिन अब सब कुछ शॉर्टकट, टारगेट अचीव करने जैसा हो चला है। उसी दिन शाम को बारात जाएगी। जाते ही द्वारचार, रात में ही जयमाल और शादी और सुबह होते-होते विदाई। यानी सब कुछ भागमभाग, फ़ास्ट फ़ॉरवर्ड मॉड में होने लगा है।

ज्यादातर बाराती तो रात में ही वापस लौट जाते हैं। सुबह सिर्फ दूल्हे के परिवार वाले और वे रिश्तेदार रुकते हैं जिनका घर बहुत दूर होता है या जिन्हें यह उम्मीद रहती है कि सुबह विदाई में दूल्हे के परिवार वालों के साथ-साथ उन्हें भी कुछ दान दक्षिणा मिलेगा।

अब आप ठीक से याद करिए कि पहले बरसात ऐसी होती थी कि हफ्तों तक बारिश की झड़ी लगी रहती थी। इंद्र भगवान, धरती की प्यास हौले-हौले, तसल्ली से बुझाया करते थे। लेकिन अब शायद इंद्र देवता भी किसी हड़बड़ी में हैं। मानो इंद्रलोक का भी निजीकरण हो गया है और उन्हें भी कोई तय टारगेट पूरा करना है।

शायद इसीलिए इंद्रदेव दो-तीन दिन में ही मूसलाधार बरस कर जुलाई-अगस्त का बैकलॉग क्लियर करके पूरे सीजन का टारगेट पूरा कर लेना चाहते हैं।

(विनय सिंह बैस)