हिंदी साहित्य में भक्तिकाल एव सामाजिक चिंतन

डॉ.आकांक्षा मिश्रा, गोंडा (उत्तर -प्रदेश)


भारतीय धर्म-साधना में भक्ति के मार्ग का विशिष्ट स्थान माना जाता है , मनुष्य प्राकृतिक शक्तियों के दैवीकरण के बाद देवताओं में असीम भक्ति की उपज होने के साथ ही मानवीकरण और भक्तिभावना दोनों के समन्वय होने के कारण अवतारवाद की स्थिति रहा हैं जहाँ तुलसी के राम ,सूर के कृष्ण जनमानस के हृदय में बसे हुए हैं । हिंदी साहित्य में किसी भी युग में धार्मिक ,राजनीतिक ,सामाजिक परिवेश का समन्वय दिखाई पड़ता है ,इस स्थिति में समाज मनुष्य घर ,परिवार ,समाज,परिवेश में सामंजस्य बिठाती हुई जनमानस की आवाज बनकर परिलक्षित हुई ऐसे में हिंदी साहित्य के इतिहास में भक्तिकाल का आविर्भाव हुआ जब भारत में राजनीतिक क्षेत्र में सन् 1343 से 16 43 ई.तक की अवधि में मुस्लिम वंश ,पठान और मुगल वंश का शासन काल रहा है । जिसके आधिपत्य के कारण हिन्दु समाज में वर्ण व्यवस्था का सही पालन न होने के कारण आपसी मतभेद ,वर्गभेद ,विविध धर्मो का अनुसरण ,आपसी द्वन्द के आने की वजह से अशांति की स्थित हो गई ।भारतीय समाज तत्कालीन दयनीय स्थितियों के कारण दो भागों विभक्त था जिससे कारण आपसी मतभेद परस्पर संघात होते रहे है ।भक्तिकाल के आरम्भ में आपसी द्वन्द पाये जाने के कारण कई धर्मो के अनुयायी ,अनेक सम्प्रदायों को लेकर समाज में अशांति फैली हुई थी । धर्म -साधना के मार्ग में साधक के लिए भक्ति -मार्ग विशिष्ट स्थान है ,भक्ति -भावना का मार्ग व्यापक रूप धारण कर शैव,शाक्त,जैन,बौध्द ,वैष्णव आदि रूप धारण कर चुकी थी समाज में हिन्दु समाज में भ्रम की उपज होने की वजह से समाज में सहिष्णुता का अभाव था।मुस्लिम शासकों के कारण अपने कुलीनता की रक्षा करना हिंदुओं की चिंता का विषय बन गया ऐसे में कबीर ,तुलसी ,रैदास ,जायसी ,आदि कवियों ने तत्कालीन परिवेश में समाज की दशा को नवीन दिशा देते हुए भक्ति के मार्ग को ज्ञान और भक्ति का रूप बताया गया है । रामानन्द ,कबीर ,रैदास ने समाज में व्याप्त विविध विभेद को कम करने के लिए सुगम मार्ग निकाले । कबीर उच्च कोटि के भक्त तो थे ही ,साथ ही भारतीय ,हिन्दू समाज में रहने वाले जागृतचेता प्राणी भी थे । तत्कालीन परिस्थियों में व्याप्त सामाजिक विभेद और आस-पास की घटनाएँ उन्हें हमेशा प्रभावित करती रही कबीर ने कभी खुद को न हिन्दू न मुस्लिम माना है ।
हिंदी साहित्य के इतिहास में भक्तिकाल का विशेष महत्व है इस काल में वाह्य आडम्बरों का विरोध ,गुरु की महत्ता , सम्प्रदायिकता का विरोध, छुआछूत की भावना का विरोध हुआ जहाँ जनमानस में नई चेतना उभरकर सामने आई । पीड़ित समाज ,समाज में व्याप्त विभेद आपसी कलह बन गई थी । भारतीय वर्ण व्यवस्था ,ऊँच -नीच का भाव ,जाति-पाँति ,भेदभाव ,धार्मिक पाखण्डी वृत्ति , के आधार पर कबीर के सामाजिक दृष्टिकोण और मान्यताओं के आधार पर चिंतन कर सकते है । जिन नैतिक मूल्यों और आदर्शो के आधार पर एक स्वस्थ समाज का निर्माण करना चाहते है उन्ही मूल्यों और आदर्शो का पालन करते हुए समाज में व्याप्त कुरीतियो को दूर करना होगा । यदि हम भक्तिकाल सामाजिक चिंतन पर विचार करते है तो कबीर हमारे समझ अधिक निकट है क्योंकि कबीर ने वर्णव्यवस्था विरोध ,जाति-पांति , ऊँच -नीच ,सम्प्रदायिकता का विरोध किया है । सन्त स्वभाव के कबीर भक्ति को साधना मानते हुए बाह्य आडम्बरों का घोर विरोध करते हुए छुआछूत की भावना का निषेध करते हुए समानता की बात की । कबीर ने शोषित और पीड़ित वर्ग का साथ देते हुए समाज के हित में लगे रहे । उन्होंने अपने समय में समाज की स्थिति को सुधारने का प्रयास किया जो वर्तमान समय में प्रासंगिक है । आज समाज आपसी कलह और पीड़ा से गुजर रहा है जहाँ कबीर काव्य में उस समय स्थिति का प्रत्यक्ष स्वरूप दिखाई पड़ता है । अपनी सांस्कृतिक चेतना और समन्वय -साधना की विराट चेष्ठा कबीर में रही। भक्ति विषयक चेतना आत्मपरक होकर व्यक्तिनिष्ठ के रूप में परिवर्तित होने के कारण ज्ञान और भक्ति का द्दोतक रहा। हर युग की सामाजिक स्थिति भयावह होती है ,वर्ग ,जाति ,रूढ़ियां ,वाद आदि समस्याएं समाज को वर्ग वैमनस्य की स्थितियों में समेट लेती है । भक्तिकाल का समय हिंदी साहित्य का स्वर्णकाल कहा जाता है ,जो समन्वय विराट चेतना रखते हुए समाज को नवीन दिशा प्रदान करता है । सामाजिक चिंतन अपने समय के मौजूदा अवधारणाओं ,संकल्पों व् वस्तुजगत को परावर्तित करने वाली क्रिया है जो विभिन्न समस्याओं के समाधान से सम्बध्द रखती है । चिंतन का स्वरूप सामाजिक होता है तो समस्यामूलक पध्दतियों से उद्देलित होकर जड़ तक समस्या का समाधान खोज लेती है । समाज की समस्या व्यवहार जगत की वाह्यगतिविधियों से सम्बद्ध रखती हुई सामाजिक स्तर पररूढ़ियों ,परम्पराओं से जुडी रहती है । भक्तिकाल समाजिक चेतना का मुखरित स्वरूप है जहाँ रूढ़ियों ,परम्पराओं का खण्डन करते हुये समाज में समानता बात रखी है । मनुष्य में श्रम और वाणी दोनों का घनिष्ठ सम्बन्ध रहा है। यही मूर्त रूप लेकर सामाजिक विकास का रूप रहा है । भक्ति साधना का मार्ग है साधन और साध्य दोनो की तथ्यपरक और साध्य रूप में परिवेश के घेरे में रहकर सारतत्वों का बोध करते हुए चिंतन के रूप को परिलक्षित करते है यही समाज की उपज है समसामयिक भी । वर्तमान समय में वर्ग वैषम्य ,वर्गीय भावना ,कुंठा ,हीनता ,बेरोजगारी ,जातीय भावनाओं ने समाज को दूषित कर दिया है । भक्तिकाल ने हिन्दू स्त्रियों की दशा बदतर रही वही मुस्लिम स्त्रियों की स्थिति खराब रही मीराबाई ,की रचनाओं में दिखाई पड़ती है । स्त्री -शिक्षा,स्त्री -सुरक्षा आदि आज भी सोचनीय है। तत्कालीन भारतीय समाज में दैनिक जीवन में ,रहन,सहन,रीति ,रस्म,त्यौहार में समय के बदलाव हुए लेकिन सामाजिक चेतना पहले ही जैसी बनी रही समाज में सुव्यवस्था लाने के प्रयत्न हो रहे है लिहाजा भारतीय व्यवस्था में समय -समय पर बदलाव भी हुए लेकिन सामाजिक स्थितियां पहले जैसी ही बनी है । साहित्य अपने समय का दर्पण है साहित्य के बिना समाज की कल्पना नहीं की जा सकती समाज और साहित्य एक दूसरे से जुड़े है सामाजिक गतिविधिया ,स्वर साहित्य की बुनियाद को सशक्त बनाती हुई समसामयिक प्रासंगिक भी । भक्तिकाव्य की परम्परा परवर्ती काल से प्रवाहमान रही है ,किन्तु भक्ति ,ज्ञान के अभाव के कारण भावना का उन्मेष कमजोर रहा साधन और साध्य की प्रबलता भक्ति के मार्ग में सशक्त पक्ष रखती है । सामाजिक जीवन आदर्शो के लीक पर ले चलने की वजह से रूढ़ियों और परम्पराओं के मूल्यों से परस्पर टकराती रही ,जिसके कारण सामाजिक स्थितियां चिंतनशील होकर सृजनात्मक रूप से साहित्य में परिवर्तित होने लगी जिसका मूल चिंतनमूलक होकर सामाजिक क्रियाओं से जुड़कर यथार्थ रूप में परिलक्षित हो उठी।