लघुकथा : भरोसा (‘कांच का प्याला’ विषय पर आधारित)

नीना अन्दोत्रा पठानिया (युवा साहित्यसेविका)-


सभी रात का खाना खाकर अपने – अपने कमरे में चले गये और नई नवेली रमा किचन का बाकी काम समेट रही थी । कुछ महीने ही हुए थे अभी रमा की शादी को हुए । सभी बहुत खुश थे रमा जैसी बहु पाकर और रमा भी खुश थी ।

रमा ने शादी से पहले जो सोच रखा था कि मैं बहु नही बेटी बनकर रहूंगी और सास-ससुर को अपने माता-पिता की तरह ही समझूँगी । रमा ने ऑफिस व घर में सामंजस्य बनाकर रखा और सब उम्मीद के अनुसार ही चल रहा था । काम करते हुए अचानक रमा को ध्यान आया कि माँ ने तो आज दवाई ली ही नहीं है ।
चलो पहले दवाई दे लूं फिर काम करती हूँ, बुदबुदाते हुए जैसे ही उसने कमरे की और कदम बढ़ाएं तो उसके कानों में उसकी सास और ननद की बातें सुनाई पड़ी । तू मेरी बेटी है और बेटी और बहू में बहुत अन्तर होता है । मैं कितना भी उसको बेटी-बेटी कहूँ पर वह तेरी जगह नही ले सकती । देखना तेरी शादी मैं कितने अच्छे से करुंगी ।

माँ की ममता बेटी पर उमड़ आई थी । पर माँ आप हमेशा उसकी हर जगह प्रशंसा करती हो, मुझे बिल्कुल अच्छा नहीं लगता । ऐसी भी कोई हूर नहीं है वो” – बेटी ने मुंह फेरते हुए कहा । करनी पडती है बेटा प्रशंसा .. इसलिए तो वह सब कुछ अच्छे से संभालती है और अपने भाई को भी तो देख । ऐसे बेरोजगार लड़के को सोने का अंडा देने वाली मुर्गी मिली है । रमा जैसी काम -काजी लड़की मिलना बहुत भाग्य की बात है।  

रमा की सास अभी बोल ही रही थी कि रमा ने दवाई देते हुए कहा , माँ जी दवाई । रमा के भरोसे, मान-सम्मान औरभावनाओं से भरा हुआ कांच का प्याला अब तक टूट चूका था , जिसको उसकी सास उसकी आँखों में साफ देख रही थी ।