संप्रभुता-रक्षा हेतु सतत संघर्षरत अपराजेय योद्धा महाराणा प्रताप को स्मरणांजलि

डॉ० निर्मल पाण्डेय (इतिहास-व्याख्याता/लेखक) :

डॉ• निर्मल पाण्डेय

‘आपने कभी अपने घोड़े पर मुग़लिया सल्तनत का शाही दाग़ नहीं लगने दिया, आपने अपनी पगड़ी कभी नहीं झुकायी, ना ही आपने अपने घोड़े पर शाही मोहर नहीं लगने दी। न आपने कभी शाही झरोखे के नीचे खड़े हो कोई इल्तिजा ही की, न आप कभी नवरोज़ में बादशाह से मिलने ही आए। पर देखिए आज जब आपकी मृत्यु का समाचार दरबार में आया है, देखिए बादशाह का सिर कैसे झुक गया है? उसकी आँख से आंसू बह निकले हैं और उसने अपने दाँतो तले अपनी ज़ुबान को कैसे दबा रखा है। आप जीत गए प्रताप, आप जीत गए।’

ये सरलार्थ था उन पंक्तियों का जिन्हें राणा प्रताप की मृत्यु का समाचार मिलने पर शब्द-लड़ियों में पिरोकर दुरसा आढ़ा ने अभिव्यक्त किरा था, वो बोल थे:

अस लेगो अणदाग पाग लेगो अणनामी
गो आडा गवड़ाय जीको बहतो घुरवामी
नवरोजे न गयो न गो आसतां नवल्ली
न गो झरोखा हेठ जेठ दुनियाण दहल्ली
गहलोत राण जीती गयो दसण मूंद रसणा डसी
निसा मूक भरिया नैण तो मृत शाह प्रतापसी…

लोक-प्रचलित काव्य-परंपरा में बहते महाराणा के यश का बखान करने वाली इन पंक्तियों को पुनः उद्धृत करते हुए ‘महाराणाप्रताप : द इन्विन्सिबल वारियर’ में इतिहासकार-पुरातत्वविद डॉ. रीमा हूजा बताती हैं कि कैसे 1596 के साल शिकार खेलते हुए महाराणा प्रताप को चोट लगी जिससे वो कभी उबर नहीं पाए। बाद में उसी चोट के कारण 19 जनवरी, 1598 को मात्र 57 वर्ष की आयु में उनका देहांत हो गया।

अकबर को यह समाचार लाहौर में उनके दरबार में दिया गया। उस समय राजस्थान के एक मशहूर कवि दुरसा आढ़ा अकबर के दरबार में मौजूद थे। वो आशुकवि थे। आशुकवि अर्थात ऐसा कवि जो किसी भी घटना को तुरंत ही कविता की शक्ल दे, उसका पाठ कर सके। राणा प्रताप की मृत्यु का समाचार मिलने पर दुरसा आढ़ा ने उपरोक्त शब्द-लड़ियों में अपनी बात रखी।

महाराणा प्रताप के जीवन और समय को तीन मुख्य स्रोतों के माध्यम से जाना जाता रहा है। मुग़ल दरबारियों द्वारा लिखे उनके आधिकारिक इतिहास द्वारा, राजस्थान के स्थानीय इतिहास और पुरावशेषों में दर्ज इतिहास द्वारा और जेम्स टॉड के एनल्स एंड एंटीक्वीटीज़ ऑफ़ राजस्थान’ द्वारा। मुग़ल इतिहासकारों, अबुल फ़ज़ल की ‘अकबरनामा’ और अब्दुल क़ादिर बदायूंनी ने ‘मनतख़ब-उत-तारीख़’ ने, राणा प्रताप को एक स्वाभिमानी बागी के रूप में चित्रित किया है, जिन्होंने अपनी संप्रभुता बनाए रखने के लिए संघर्ष स्वीकार किया और मुगलों का सहयोगी बनने से इनकार कर अकबर के जीवन काल में परेशानी का सबब बने रहे।

राजस्थानी बोली-भाषा-माटी-थाती में विरचित-जीवित चिरंजीवी वीर-छंदों में उन्हें मध्ययुगीन भारत का सबसे बड़ा नायक और राजपूतों का सबसे बड़ा योद्धा माना जाता है। यह एक ऐसा तथ्य है जो योद्धा-राजाओं के प्रशस्तिगाथाओं के रूप में जेम्स टॉड कृत इतिहास कृति ‘एनल्स एंड एंटीक्वीटीज़ ऑफ़ राजस्थान’ में भी स्पष्ट परिलक्षित हुआ है। टॉड की पुस्तक को यूँ ही नहीं महाराणा प्रताप के जीवन के विभिन्न पहलुओं से समटने वाली सामग्री का अतुलित भंडार माना जाता है, ऐसी सूचनाओं से भरपूर जिन्हें आमतौर पर अन्यत्र बिखरे ऐतिहासिक कार्यों में इतना स्पष्ट दिखना नसीब नहीं होता है।

तीन साल पहले 2017 में चन्द्रशेखर शर्मा की कृति ‘राष्ट्र रत्न महाराणा प्रताप’ में किए दावे कि, ‘हल्दीघाटी के युद्ध में महाराणा प्रताप ने मान सिंह के नेतृत्व में आई अकबर की सेना को हरा दिया था’, ने अकादमिक हलचल तेज कर दी। कम्युनिस्ट इतिहासकारों में अभी तक मुग़लिया दरबारी इतिहास के आधार पर इस लड़ाई को बराबरी पर छूटा बताया था।

भारतीय दृष्टि से इतिहास के पुनर्लेखन की नई धारा जिसमे केसरी सिंह की ‘महाराणा प्रताप: द हीरो ऑफ़ हल्दीघाटी’, इतिहासकार जी.एन. शर्मा की ‘मेवाड़ एंड मुग़ल एम्परर्स’ और इतिहासकार और पुरातत्वविद डॉ. रीमा हूजा की ‘महाराणा प्रताप द इन्विन्सिबल वारियर’ ने महाराणा प्रताप के जीवन का दूसरा पहलू, ऐतिहासिक रूप से प्रामाणिक, लोक-प्रचलित सच्चा पहलू लोगों के सामने रखने का प्रयास किया है।

भारतीय दृष्टि के अभाव में हुए अब तक हुए इतिहासलेखन ने हमारे राष्ट्रीय इतिहास का बड़ा नुकसान किया है। आज आवश्यकता है, ऐसी ही भारतीय-दृष्टि वाले बहुतेरे इतिहासकारों की, जो गलत/मिथ्या/काल्पनिक स्रोतों और तथ्यों के आधार पर लिखे जा चुके इतिहास की त्रुटियों को पहचानें, तत्पश्चात भारतीय इतिहासलेखन में मौजूद अशुद्धियों को दूर कर उसका परिमार्जन करें और सत्याधारित इतिहासलेखन का मार्ग प्रशस्त करें।

सनद रहे, किसी भी राष्ट्र का भविष्य कैसा हो, यह उसकी विरासत तय करती है, उसका गौरवशाली इतिहास करता है।