भगवान शिव हिन्दू धर्म में सबसे महत्त्वपूर्ण देवताओं में से एक हैं। इनकी गणना त्रिदेवों में की जाती है, यह देवों के भी देव कहे जाते हैं। शिव में परस्पर विरोधी भावों का सामञ्जस्य देखने को मिलता है। भगवान शिव के मस्तक पर एक ओर चन्द्रमा विराजमान हैं तो दूसरी ओर महाविषधर सर्प उनके गले का हार है। वे अर्धनारीश्वर होते हुए भी कामजित हैं। गृहस्थ होते हुए भी शमशानवासी एवं वीतरागी हैं। आशुतोष (सौम्य) होते हुए भी रुद्र (भयंकर) हैं। अतएव इनके यथार्थ स्वरूप का अभिज्ञान अत्यन्त दुरूह है। शिव के साथ भूत-प्रेत, नन्दी, सिंह, सर्प, मयूर एवं मूषक का समभाव प्राप्त होता है। वे स्वयं द्वन्द्वों से रहित महान विचार के परिचायक हैं।
श्वेताश्वतर उपनिषद् के अनुसार सृष्टि के आदि में जब कुछ नहीं था तब केवल शिव का अस्तित्व था- ‘यदा तमस्तन्न दिवा न रात्रिर्न सन्नचासच्छिव एव केवलः’। इसी उपनिषद् में शिव का निरूपण अद्वितीय, निराकार, प्रपञ्चरहित, शान्त और शुद्ध ब्रह्म के रूप में किया गया है – ‘एको हि रुद्रो न द्वितीयाय तस्थु:।’ अन्यत्र भी ‘शिवैकं निष्कलं ब्रह्म’ तथा ‘शिवैको ब्रह्मरूपत्वान्निष्कल: परिकीर्तित:’ के रूप में इसी अवधारणा का उपबृहण हुआ है।
पुराणों में ग्यारह रुद्रों का शिव के अवतारों के रूप में वर्णन है। इनका आविर्भाव दैत्यों से पीडित देवताओं की प्रार्थना पर हुआ था। ये हैं- कपाली, पिंगल, भीम, विरुपाक्ष, विलोहित, शास्ता, अजपाद, अहिर्बुधन्य, शम्भु, चण्ड तथा भव। ये कश्यप तथा सुरभि के सन्तान माने जाते हैं।
शिव के वास्तविक स्वरूप को जानने के लिये शैवागम को जानना अत्यन्त आवश्यक होगा। शैवागमों का भी उद्भव वेदों की भाँति अनादिकाल से ही माना जाता है, क्योंकि वे स्वयं भगवान शिव द्वारा रचित हैं। ९५० ई० से ९६० ई० के मध्य जन्मे अभिनवगुप्त परम शिव भक्त थे। इनकी माता का नाम विमलकला तथा पिता का नाम नृसिंहगुप्त था। वे परम शिव भक्त थे। अभिनवगुप्त का जन्म ऐसे कुल में हुआ था, जहाँ वैदुष्य और शिवभक्ति की एक लम्बी परम्परा थी। उनके जीवन का प्रत्येक दिवस ऐसे वातावरण में बीता जो पाण्डित्य और भक्ति भावना से ओत-प्रोत था। अपने कौटुम्बिक वातावरण के विषय में अभिनवगुप्त लिखते हैं कि कुटुम्ब के सभी सदस्यों ने लौकिक सम्पत्ति को तृणवत् समझा और शिव के ध्यान में ही अपने हृदय को लगाया- ‘‘ये संपदं तृणममंसतशम्भुसेवा, सम्पूरितं स्वहृदयं हृदि भावयन्तः।’’
कश्मीर में यह परम्परागत विश्वास है कि अभिनवगुप्त ‘योगिनीभू’ अर्थात् योगिनी से उत्पन्न थे। परमार्थसार के टीकाकार योगराज का स्पष्ट कथन है कि अभिनवगुप्त महेश्वर के साथ तादात्म्य की अर्थात् भैरव की अवस्था प्राप्त कर चुके थे। कश्मीर के परम्परानिष्ठ पण्डित अभिनवगुप्त को भैरव का अवतार मानते हैं।
मधुराजयोगी अपनी रचना गुरुनाथ-परामर्श में कहते हैं कि ‘अभिनवगुप्त देहधारी शिव थे।’ मधुराजयोगी की एक अन्य पुस्तक ध्यानश्लोक है जिसमें अभिनव को ‘अभिनवदक्षिणामूर्तिदेव’ कहा गया है- ‘‘श्रीकण्ठावतार अभिनव के रूप में कश्मीर से आये हुए भगवान दक्षिणामूर्ति हमारी रक्षा करें। मधुराज ने कहा कि गुण और परिमाण की दृष्टि से ऐसी असाधारण साहित्यिक और व्याख्यानात्मक प्रतिभा साधारण मस्तिष्क में नहीं मिल सकती यह केवल उस आत्मा में ही देखी जा सकती है जो शिव के दिव्य चैतन्य में निमग्न हो जो अभिनवगुप्त के शब्दों में ‘रुद्रशक्ति समाविष्ट है।’
अभिनवगुप्त का प्रत्यभिज्ञा सिद्धान्त जीव को यह हृदयंगम कराने के लिए है कि उसका वास्तविक स्वरूप शिव है शिव के अतिरिक्त और कुछ नहीं है। जिसके लिए प्रमुख तत्त्व निम्नलिखित हैं-
1.परमार्थ- परमार्थ अपने चरमरूप में चित् या परासंवित् है। चित् सब परिवर्तनशील पदार्थों का निर्विकार तत्त्व है इसमें अहम् और इदं का भेद नहीं रहता। परमार्थ या चरमतत्त्व चिन्मात्र नहीं है चित् शक्ति भी है। यह सर्वसंग्राही चित् अनुत्तर भी कहलाता है क्योंकि इससे बढ़कर और कुछ भी नहीं है।
2.जगत्- परमार्थ अभिव्यक्ति रहित नहीं है उसकी अनन्त शक्तियाँ हैं उसमें भूत वर्तमान भविष्य सब कुछ बीज रूप से विद्यमान है यदि परमार्थ चित् संवित् या महेश्वर में प्रकट होने की क्षमता न होती तब वह चित् या संवित् नहीं कहा जा सकता था। क्षेमराज ने इसी को परमशिव का हृदय कहा है- ‘हृदयं परमेशितुः’ शक्ति शक्तिमान् से भिन्न नहीं है, उसी का प्ररूप है। परम अनुभूति में जो इदं है वह अहं ही है यह विमर्श या शक्तिशून्य नहीं है। यथा-
यथा न्यग्रोधबीजस्थः शक्तिरूपो महाद्रुमः। तथा हृदयबीजस्थं विश्वमेतच्चराचरम्।।
परमशिव की पाँच प्रमुख शक्तियाँ हैं-
(क) चित्- आत्मप्रकाशन की शक्ति इस प्ररूप में वह शिव कहलाता है।
(ख) आनन्द- इस रूप में वह महेश्वर शक्ति कहलाता है।
(ग) इच्छा- सर्जन की प्रवृत्ति इसमें वह सदाशिव और सदाख्य कहलाता है।
(घ) ज्ञान- इसमें वह ईश्वर कहलाता है।
(ङ) क्रिया- कोई भी आकार ग्रहण करने की शक्ति (सर्वाकार योगित्वं क्रिया शक्तिः)
शिवतत्त्व- परमशिव का स्पन्द है जैसा कि षट्त्रिंशत्-तत्त्व-सन्दोह में कहा गया है-
यदयमनुत्तरमूर्ति र्निजेच्छयाखिलमिदं जगत्स्रष्टुम्। पस्पन्दे स स्पन्दः प्रथमः शिव तत्त्व मुच्यते जगत्।।
जब अनुत्तर परमशिव अपनी इच्छा से जगत् के सर्जन के लिए स्पन्दमान होता है तो उसका आद्य स्पन्द उसके जानकारों द्वारा ‘शिवतत्त्व’ कहलाता है।
शक्तितत्त्व- यह शिव की ही शक्ति है शक्ति ‘निषेधव्यापाररूपा’ कही गयी है। ‘शक्ति पहले इदम् (यह) या वेद्य का निषेध कर देती है। इस स्थिति को शून्यातिशून्य कहते हैं। चित् परासंवित् में अहम् और इदम् अभिन्न है। शिवतत्त्व में शक्ति के व्यापार से इदं प्रत्याहृत हो जाता है केवल अहं रह जाता है क्षेमराज ने इस स्थिति को अनाश्रित शिव कहा है-
श्री परमशिवः पूर्व चिदैक्याख्यातिमयानाश्रितशिवपर्यायशून्यातिशून्यात्मतया प्रकाशाभेदेन प्रकाशमान तया स्फुरति।।
शैव दर्शन में स्वातंत्र्य या माहेश्वर्य का भाव है बिना किसी उपादान के, बिना किसी बाधा के अपने आप में सब कुछ कर डालने का सामर्थ्य- ‘स्वातंत्र्यं च नाम यथेच्छं तत्रेच्छाप्रसरस्य अविघातः’।
परमशिव चेतना का एक परिपूर्ण और असीम समुद्र है। स्वातंत्र्य उस चेतना का स्वरूप है। यही उसका अपूर्व विलास बन जाता है। विलास के कारण ही उसे महादेव कहा जाता है। देव शब्द का अर्थ ही क्रीड़ाशील या विलसन होता है। परमशिव के इस विलसन स्वभाव को आनन्द कहा जाता है। समस्त विश्व का अधिष्ठान चित् या संवित् है। चित्र-विचित्र सदा परिवर्तनशील आभास उसी चित् के आविर्भाव मात्र हैं जो कुछ भी किसी भी रूप में प्रकट करते हैं चाहे प्रमेय अथवा प्रमाता के रूप में, चाहे ज्ञान अथवा ज्ञान के साधन के रूप में। वह सब कुछ उसी परमचित् का आभासमात्र है जो कुछ भी विद्यमान है वह आभासों का विन्यास मात्र है। जैसे स्वच्छ दर्पण में चित्र-विचित्र नगर, ग्राम इत्यादि के प्रतिबिम्ब दर्पण से अभिन्न होते हुए भी परस्पर और दर्पण से भिन्न भासित होते हैं वैसे ही यह जगत् परमशिव के विमल संवित् से अभिन्न होते हुए भी परस्पर और उस संवित् से भी भिन्न भासित होता है।
इस दर्शन ने नारी को शक्ति के रूप में प्रतिष्ठा प्रदान की है। शक्ति के बिना ‘शिव’ भी ‘शव’ ही कहा गया है- ‘शिवः शक्त्या युक्त’ वह महाशिव की सहचरी बन गयी शिव और शक्ति का नित्य सामरस्य ही परमशिव है जैसा कि शिवदृष्टि में कहा गया है-
‘न शिवः शक्तिरहितो न शक्तिर्व्यतिरेकिणी। शिवः शक्तस्तथा भावनिच्छया कर्तुमीदृशान्।।
शक्तिशक्तिमतोर्भेदः शैवे जातु न वर्ण्यते।।
ऐसे महाकाल शिव की आराधना का महापर्व है शिवरात्रि।
©डॉ० सन्त प्रकाश तिवारी
सहायक आचार्य
संस्कृत विभाग
इलाहाबाद विश्वविद्यालय प्रयागराज।