भ्रष्टाचार के पैमाने पर बड़े बजट का यह बड़ा खेल साबित हो सकता है : सन्त समीर

लगभग बोगस बजट।

समझदारी और मूर्खता का समुच्चय, पर मूर्खता का प्रतिशत ज़्यादा है। महिलाओं का ख़याल किया गया है और गहने वगैरह कुछ सस्ते हो सकते हैं, जो बुरा नहीं है। ई-विद्या की योजना अच्छी है, पर इसमें बुनियादी ढाँचे की योजना का सिरे से अभाव है। यह ऐसी योजना है, जिसमें धन की कम, बढ़िया कार्ययोजना की ज़रूरत ज़्यादा है। अन्तिम रूप से शिक्षा पर कुल बजट अनुपात घटता दिख रहा है। ज़रूरतमन्द वर्ग को मुफ़्त अनाज देना भी सरकार का सराहनीय क़दम माना जा सकता है, पर इसे इस वर्ग का ‘इम्पॉवरमेण्ट’ यानी सशक्तीकरण कहना देश को मूर्ख बनाना है। रसायनमुक्त खेती को बढ़ावा देना, समय की ज़रूरत मान सकते हैं, पर इस पर काम कर्मकाण्ड से आगे बढ़े तभी।

ख़ैर, ऐसे कामों में मोदीजी के सुर के साथ हमारे जैसे लोग भी अपना सुर मिला ही सकते हैं। बिना स्पष्ट खाका दिए एमएसपी पर ‘रिकॉर्ड ख़रीदारी’ करने के बजटीय वादे का असली अर्थ सरकार ही बता सकती है। अलबत्ता, फ़ोन जैसी कुछ डिजिटल चीज़ें सस्ती हो सकती हैं, जिसके लिए हम-आप ख़ुश हो सकते हैं। कुछ शङ्काओं-कुशङ्काओं के बीच बिजली अगर थोड़ी भी सस्ती होती है तो इसका स्वागत आमजन ज़रूर दिल से करेगा। जहाँ तक स्वास्थ्य क्षेत्र की बात है तो इस मोर्चे पर बस एलोपैथी तौर-तरीक़ों को बढ़ावा देने का ही इन्तज़ाम दिखाई दे रहा है।

अटल बिहारी वाजपेयी जी के मन में कभी एक तुगलकी शौक़ जगा था, उसे यह सरकार जैसे पार्टी का पितृयज्ञ मानकर पूरा करना चाहती है। नदियों को जोड़ने की योजना का ज़ोर-शोर से ऐलान किया गया है। हो सकता है कि मोदी सरकार की सुपर मूर्खताओं में से यह भी एक साबित हो। अगर यह हो गया तो आने वाली पीढ़ियाँ इस मूर्खतापूर्ण काम के लिए भाजपा को याद करेंगी। भ्रष्टाचार के पैमाने पर बड़े बजट का यह बड़ा खेल साबित हो सकता है। टिहरी में रहकर मैं नज़दीक से देख चुका हूँ कि ऐसी चीज़ों में दो सौ करोड़ कैसे देखते-देखते दो हज़ार करोड़ में बदल जाते हैं। अपना तो ऐलान अभी से है कि इस ‘नदी जोड़ो’ का मैं भरपूर विरोध करूँगा। जब आसान विकल्प सोचे जा सकते हैं, तो प्रकृति के साथ छेड़खानी की ऐसी मूर्खताओं का क्या मतलब?

बजट से स्पष्ट हो चुका है कि सरकार क्रिप्टो करेंसी जैसी चीज़ों को हतोत्साहित करने के लिए कमर कस रही है। कुछ अर्थों में यह ठीक हो सकता है, पर सवाल यह है कि दूसरे रास्ते से ख़ुद सरकार भी आख़िर उस दुनिया में क्यों उतरना चाहती है? क्रिप्टो में मुनाफ़े पर 30 प्रतिशत टैक्स लगाना जायज़ मान लिया जाय, पर घाटे की स्थिति में भी टैक्स लगाने का क्या तुक है? ऐसा नहीं है कि क्रिप्टो में सिर्फ़ धन्धेबाज़ ही धन लगाते हैं या लगाएँगे, आम आदमी भी चार पैसे कमाने की सोच सकता है। क्रिप्टो को इतना ही हतोत्साहित करना है तो इसे पूरी तरह से अमान्य क्यों नहीं घोषित कर देते? घाटे पर टैक्स का मैं इतना ही अर्थ समझ पा रहा हूँ कि धनी लोग 30 प्रतिशत देकर भी क्रिप्टो से सचमुच मुनाफ़ा कमा लेंगे, पर आम निवेशक दोहरा नुक़सान उठाएगा।

ऐसे मुश्किल समय में ही एक अच्छे बजट की उम्मीद की जाती है, पर नेताओं की पढ़ाई जितनी है, उनकी बुद्धि से उससे ज़्यादा की उम्मीद भला कैसे कर सकते हैं? नौकरशाह तो ख़ैर हर सरकार में एक जैसे ही होते हैं और उनका काम इशारों पर नाचना भर होता है। मुद्दे कई निकल रहे हैं, पर आनन-फानन में जो मन में आया, लिखा।

सन्त समीर (प्राकृतिक चिकित्सक व वरिष्ठ पत्रकार)