अभिव्यक्ति के दंश

पृथ्वीनाथ पाण्डेय

एक :
ऐ हुस्न की मलिक:! आँखें यों मला न करो,
वही तस्वीर है, जो छोड़कर तुम आयी थी।

दो :
अब लौटकर न आयेंगी फिर से बहारें,
मेरे आँसू में अब डूबते हैं चाँद-तारे।

तीन :
कैसे मान लिया आवाज़ दब गयी मेरी,
क़ब्रगाह दहल उठता है गूँज उठने पर।

चार :
बेशक, ख़राब ही नहीं, बेहद ख़राब हूँ मैं,
अच्छे को बेहद अच्छा, सलीक़े से बनाता हूँ।

पाँच :
ज़िन्दगी रोकर कटी तो कटी ही क्या?
बेहतर है मौत को गले लगाकर जी लें।

छ: :
मैं रहूँ, न रहूँ, फ़र्क़ भी क्या पड़ता है?
तेरा बेपर्द: होना अब लाज़िमी लगता है।

सात :
घर से धुआँ उठा, जो बहुत दूर तक गया,
दामन से लिपटते ही हवा कर गया हमें।

(सर्वाधिकार सुरक्षित : पृथ्वीनाथ पाण्डेय, प्रयागराज ; ११ मार्च, २०२० ईसवी)