हिन्दी लेखकों का अँगरेज़ी प्रेम

रंगनाथ सिंह जी (वरिष्ठ पत्रकार) की फ़ेसबुक-वॉल से साभार :

एक बार अपने एक प्रिय टीचर से मैंने कह दिया था कि ‘सर इस देश में इंग्लिश भाषा नहीं क्लास है तो वो नाराज हो गये थे।’ उनके जैसे काबिल और भले टीचर मुझे कम ही मिले हैं तो उनसे ऐसा कहने का बहुत अफसोस हुआ लेकिन बात तो सच थी।

“अँगरेज़ी ज्ञान की भाषा है”, कुछ लोग ऐसे कहते हैं जैसे देश में सेना की भर्ती से ज्यादा ज्ञानी बनने के लिए दौड़ लगी हुई है। ये एक ऐसा फ्राड है जिसका इस्तेमाल भारतीय प्रोफेशनल इलीट क्लास की हेजेमनी को बरकरार रखने के लिए किया जाता है। भारत ऐसा देश है जिसमें आप अँगरेज़ी जाने बिना देश के प्रधान सचिव या गृह सचिव या सुप्रीम कोर्ट-हाईकोर्ट के जज इत्यादि नहीं बन सकते। जापान, चीन, कोरिया या कतर या ईरान में बन सकते हैं। ये सारे देश हमसे कम ज्ञानी या ज्ञान-प्रेमी नहीं हैं।

दुनिया की कोई भी भाषा हो वह अभ्यासजन्य होती है। किसी भाषा क्षेत्र का सबसे मंदबुद्धि व्यक्ति भी वह भाषा आसानी से सीख लेता है। भारत ऐसा देश है जहाँ एक भाषा को बुद्धिवर्धक चूर्ण बताया जाता है। अँगरेज़ी में ज्ञान की दुहाई देने वाले ज्यादातर लोग अपनी हितलाभ का बचाव कर रहे होते हैं। अकादमिक दुनिया में दूसरी या तीसरी भाषा सीखना आम बात है। यह आपके विषय पर निर्भर है। दुनिया भर के विद्वान अपने लेखन की भाषा से इतर अन्य एक-दो-तीन भाषाएं पढ़ और समझ लेते हैं। बौद्धिक दुनिया में विदेशी भाषा की इतनी ही जरूरत होती है। जिसे विदेश में नौकरी चाहिए होती है वह भी उस भाषा को जरूरत भर सीख लेता है। हमारे पंजाबी भाई तो IELTS के अलावा इतालवी और फ्रेंच और न जाने क्या क्या सीखे हुए हैं। इसके लिए उन्हें कॉलेज या यूनिवर्सिटी भी नहीं जाना होता। बहुत सारे तो सीधे इटली जाकर ही इतालवी सीख लेते हैं। आपको क्या लगता है कि पंजाबियों में ज्ञानी बनने की होड़ लगी हुई है!

भारत में अँगरेज़ी का सम्बन्ध ज्ञान-विज्ञान से कम और प्रोफेशनल करियर से ज्यादा है। भारत में करियर निर्माण के दौरान एक सीमा से आगे जाने के लिए आप को अंग्रेजी की दासता स्वीकार करनी होती है। मेरे एक मित्र से मैंने एक बार कहा कि आप थोड़ा अँगरेज़ी भी पढ़ा कीजिए तो उन्होंने दो टुक कहा- सर, आप पढ़िये, हमको पैसा कमाना है, कमाकर दो आईआईएम पास सेक्रेटरी अँगरेज़ी बोलने के लिए रख लेंगे। मेरे मित्र पढ़ने में अच्छे थे। अपने विषय में नेट-जेआरएफ थे लेकिन उनकी दुनियावी हकीकत की समझ मुझसे बहुत बेहतर थी। मुझे नहीं पता कि वो आज खुद कितनी अंग्रेजी बोलते हैं लेकिन यह जरूर है कि आज उनका एक सफल कारोबार है जिसमें काबिल अँगरेज़ीदाँ नौकरी करते हैं।

अँगरेज़ी को रामबाण बताने वालों की पेशेवर पृष्ठभूमि पर जरूर गौर करना चाहिए। ज्यादातर मौकों पर यह करियर में उचकने का मामला होता है। अगर मैं अपने फील्ड मीडिया की बात करूँ तो यहाँ भी अँगरेज़ी को लेकर यही दुख होता है कि अँगरेज़ी में पैसे और जॉब सिक्योरिटी ज्यादा है। लेकिन कई मौकों पर मामला करियर के बजाय पैसे की भूख में बदलने लगता है। हिन्दी मीडिया में काम करके दो-तीन लाख रुपये मासिक सैलरी तक पहुँच जाने के बाद यह दर्द सताने लगता है कि फलाँ अँगरेज़ी सम्पादक की तरह मेरी सालाना आय (सीटीसी) करोड़ में क्यों नहीं है। दिल्ली या मुम्बई में रहने वाले कुछ सफेदपोश पत्रकारों के जीवन में वह वक्त जरूर आता है जब उन्हें 30-40-50 लाख सालाना आय करोड़-दो करोड़ से छोटी लगने लगती है। सरल शब्दों में कहें तो वह देश के रूलिंग इलीट या उनके दरबारी वर्ग में शामिल होना चाहता है।

इंग्लिश इलीट का क्लास कितना मजबूत है यह समझने के लिए आप देख सकते हैं कि ब्राह्मणों को दिन रात कोसने वाले विद्वान भी सुबह-शाम अँगरेज़ी के पैर पखारते हैं क्योंकि उन्हें उस इलीट क्लास में जगह बनानी है। ध्यान रहे वह उस क्लास-स्ट्रक्चर को तोड़ना नहीं चाहते बल्कि उसमें जगह बनाना चाहते हैं। कोई माने या न माने आज के भारत का यही सच है कि बढ़िया अँगरेज़ी लिखने-बोलने वाला वनवासी भील अँगरेज़ी न जानने वाले ब्राह्मण से ज्यादा बेहतर करियर बना सकता है। एक व्यक्ति का करियर बनाने के लिए आज अँगरेज़ी का शॉर्टकट काम करता है, इसमें कोई दो राय नहीं है लेकिन इससे समाज के वर्गीय ढाँचा टूटेगा यह कहना नासमझी है। एक छोटा सा वर्ग, दूसरे बड़े से वर्ग पर हुकूमत कर रहा है। यही हाल रहा तो आगे भी करता रहेगा।

एक अनुमान के अनुसार देश में करीब चार प्रतिशत लोग अँगरेज़ी में प्रवीण हैं। जरा सोचिए करीब 250 साल के इंग्लिश एजुकेशन के बाद देश में केवल चार प्रतिशत मैकाले पुत्र तैयार हो पाये हैं। बाकी 96 प्रतिशत कितने साल में सीखेंगे यह केवल मैकाले की आत्मा बता सकती है। मुझे पूरा यकीन है जब भारत की 96 प्रतिशत आबादी अँगरेज़ी सीख लेगी तो देश का इलीट क्लास कोई नई भाषा सीख लेगा और कहेगा कि यही ज्ञान की भाषा है जिसे हमारे बाबू-वकील इस्तेमाल करेंगे।

देश की बड़ी आबादी की प्रतिभा और ऊर्जा एक भाषा सीखने में खप रही है। ऐसी भाषा जिसका 100 साल पहले ऐसा दबदबा नहीं था और 100 साल बाद भी उसका दबदबा रहेगा या नहीं, पता नहीं। चीन जिस तरह आगे बढ़ रहा है तो कौन जाने 100 साल बाद जापानियों को छोड़ बाकी दुनिया को चीनी ज्ञान की भाषा लगने लगे। या फिर कौन जाने कि कभी माओवादी भारत की सत्ता में आ जाएँ और कहने लगें कि चेयरमैन माओ की भाषा ही ज्ञान की भाषा है। सभी राजकाज उसी में होंगे। उसके बाद जिस तरह मुगलों के दरबार में फारसी पढ़कर बड़े-बड़े साइंसदान निकले, कांग्रेस दरबार से अँगरेज़ी पढ़कर बड़े-बड़े साइंसदान निकले उसी तरह माओवादियों के दरबार से चीनी पढ़कर उसी टक्कर के साइंसदान निकलने लगें।

फिर भारत में एक नई मुहिम शुरू होगी, संस्कृत, फारसी और अँगरेज़ी के बाद चीनी सीखने की। इस देश का दुर्भाग्यशाली इतिहास यही है कि ज्ञान के नाम पर भाषा का इस्तेमाल एक छोटे से वर्ग के हाथ में सत्ता बनाए रखने के लिए किया जाता रहा है।