सनातन धर्मानुसार मनुष्यों में न्याय की प्रवृत्ति का परिचय

जो अन्याय करता है, और कभी नहीं चाहता की न्याय हो, उसे निषाद कहते हैं।
उसे अन्त्यज कहते हैं।
उसे बहिष्कृत्य और परित्यज्य कहते हैं।
उसे अस्पृश्य कहते हैं।
उसे अछूत कहते हैं।
उसे असामाजिक तत्त्व कहते हैं।
उसे असभ्य कहते हैं।
उसे अपराधी कहते हैं, क्योंकि अन्याय ही अपराध है।
मानवसमाज में अन्यायी के अतिरिक्त अन्य कोई भी न निषाद है।
न दलित है।
न अछूत है।
न अन्त्यज है।
न अपराधी है।
न असामाजिक है।
न आतंकी है।

जो न्याय चाहता है लेकिन न्याय को जानता व समझता नहीं।
अन्याय को आजीवन सहन करता है, उसे शूद्र कहते हैं।

जो न्याय को समझता भी है चाहता भी है, लेकिन अपनी चारदीवारी से निकलना नही चाहता, अपनी दुनिया में ही मस्त रहता है, उसे वैश्य कहते हैं।

जो न्याय को समझता भी है, चाहता भी है और न्याय की प्रतिष्ठा के लिए कार्य भी करता है, उसे क्षत्रिय अर्थात राजकीय कर्मचारी (चपरासी से लेकर राष्ट्रपति पद) ही कहते हैं।

जो न्याय को जानता भी है, मानता भी है, प्रतिष्ठित भी करता है, प्रकाशित भी करता है, सिर्फ वही ब्राह्मण अर्थात नेतृत्वकर्मी (पँच-सरपंच से लेकर प्रधानमंत्री पद) कहलाने योग्य है।

संसार में सब एक ही परम पिता की संतान हैं, इसलिए मूलतः प्रत्येक व्यक्ति समान और उचित अधिकारों और कर्तव्यों का स्वामी है। समाज में समुचित जनहिताधिकारों का वितरण ही न्याय है।
परस्पर समुचित व्यवहार ही न्याय है।
आमआदमीपार्टी (AAP) पुनः न्यायधर्मिता को प्रतिष्ठित कर रही है।
समझदार लोग ज्वाइन करें।
जातिमुक्त गुणात्मक वर्णव्यवस्था अर्थात मैरिटोक्रेसी के माध्यम से न्यायशील नवसमाज के पुनर्गठन का समय आ पहुचा है।
आइए मिलकर सम्पूर्ण विश्वभारत् में न्यायशील नेतृत्वकर्म द्वारा मानवीय समाज में पुनः शासनव्यवस्था को सुव्यवस्थित करें।

✍ राम गुप्ता (स्वतंत्र पत्रकार)
अति साधारण कार्यकर्ता/प्रचारक
आम आदमी पार्टी, उत्तरप्रदेश