
दुनिया के नक़्शे पर स्वतंत्रता के लिए संघर्ष करने वाले गुलाम देशों में सबसे बड़ा संघर्ष भारत राष्ट्र ने किया।
मशहूर शायर एवं स्वतंत्रता सेनानी अकबर इलाहाबादी लिखते हैं कि–
खींचो न कमानों को, न तलवार निकालो।
ज़ब तोप मुकाबिल हो तो अख़बार निकालो।।
इस दो लाइन के शेर में स्वतंत्रता संघर्ष एवं उसमें पत्रकारिता की प्रासंगिक यात्रा के योगदान को बखूबी समझा जा सकता है। स्वतंत्रता आंदोलन हिंदुस्तान की जिस पृष्ठभूमि के साथ पुष्पित एवं पल्लवित हो रहा था वह पृष्ठभूमि राजनीतिक रूप से शून्यता की ओर अग्रसर थी, जिसे आगे चलकर भारत में व्यापार करने आये मुट्ठी भर अंग्रेजों ने अपनी कुटिलता, अपने फरेब, विश्वासघात एवं फिर हिंसात्मक दमन के साथ भरना शुरू किया। परिणाम ये हुआ कि भारत राजनीतिक-सामाजिक एवं सांस्कृतिक रूप से इतना दुर्बल हुआ कि राष्ट्र के मूल से अपने पुरातन संस्कृति के प्रति अविश्वास, अपने धर्म के प्रति जागरण का अभाव दिखने लगा और फिर इसका फायदा उठाया अंग्रेजों ने। गोरों के लिए यही उपयुक्त समय था कि भारतीय शिक्षा पद्धति से लेकर भारतीय सभ्यता तक को असभ्य, बर्बर एवं महत्वहीन करार देना। जिसमें वे बखूबी सफल भी हुए और भारत राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक एवं सांस्कृतिक रूप से हीनता के एहसास के साथ पराधीनता के दुश्चक्र में फँसता चला गया।
ऐसे में युद्ध स्तर पर भारत को कई आयाम पर प्रतिरोध के स्वर बुलंद करने पड़े। भारतीय संचेतना के जागरण हेतु सेनानियों ने क्रांतिकारी आंदोलन, अहिंसात्मक आंदोलन, बहिष्कार, स्वराज, राजनीतिक भागीदारी के साथ-साथ साहित्य एवं पत्रकारिता को भी उपकरण के तौर पर इस्तेमाल किया। पत्रकारिता के माध्यम से स्वतंत्रता संघर्ष में जान फूँकने वाले कद्दावर पत्रकार बाबू राव विष्णुपराड़कर ने 1942 में काशी से भूमिगत पत्रिका “रणभेरी” निकाला, जिसके अग्रलेख में अक्सर लिखा रहता था कि- ”दमन से द्रोह बढ़ता है, स्वतंत्रता की पिपासा लाठियों-गोलियों से नहीं बुझा करती और नौकरशाही के गोबर भरे गंदे दिमाग में इतनी समझ कहाँ? वह तो शासन का एक ही शस्त्र जानती है- ‘बंदूक’।” भारतीय पत्रकारिता का औचित्य सिद्ध करने के लिए स्वर्णकाल रहा है औपनिवेशिक काल।
इतिहास के पन्नों में स्वतंत्रता आंदोलन के उद्देश्य को बहुत हद तक राजनैतिक आज़ादी तक सीमित करने का प्रयास किया गया किन्तु ‘रणभेरी’ के ही शीर्ष लेख पर छपे वाक्य ‘रणभेरी बज उठी वीरवर पहनो केसरिया बाना’ से भारत की पुरातन अस्मत के लिए चिंता को समझा जा सकता है और यह चिंता अनुनय विनय के बजाय काफी मुखर होकर उग्रता का परिचय देती दिखाई दे रही हैं। 6 दिसंबर 1942 को ‘खबर’ नामक अख़बार में अंग्रेजों की विज्ञप्ति छपी- “काशी की रणभेरी की मशीन पकड़ ली गयी है” इसके जवाब में 10दिसंबर 1942 को ‘रणभेरी ने लिखा कि-
“आज मुझे इस बात पर आवे हँसी अपार।
तुच्छ गीदड़े भी कहें कि मारा सिंह शिकार।।”
नवंबर 1922, प्रयागराज से रामरख सिंह सहगल ने ‘चाँद’ पत्रिका निकाला और 1928 में चाँद के ‘फांसी’ अंक के कुछ उद्धरण.. “फांसी अंक को दिवाली की अमावस्या समझिए। देखिए इसमें बीसवीं शताब्दी के दीये कैसे टिमटिमा रहे हैं और देखिये स्थान-स्थान पर कैसी ज्वलंत अग्नि धाँय-धाँय कर जल रही है, और सबके बीच में जाग्रत-ज्योति-मृत्यु-सुंदरी कैसा श्रृंगार लिए छम-छमकर नाच रही है। पूजो! भाग्यहीन भारत के राजपाट, अधिकार सत्ता और शक्तिहीन नर-नारियों, यही तुम्हारी गृहलक्ष्मी है। कई आयाम किन्तु एक ही उद्देश्य से समूचे भारत में पत्रकारों ने अंग्रेजों के खिलाफ कमर कस ली थी। इसी का एक महत्वपूर्ण अंग थे तिलक। भारतीय पत्रकारिता में सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के स्याह पक्ष थे बाल गंगाधर तिलक। उनकी पत्रकारिता निर्भीक भी थी और उग्र भी। सेनानी के रूप में या पत्रकार के रूप में वो कभी झुके नहीं गोरों के सामने। कोल्हापुर महाराजा के दीवान बरवे के विषय में एक लेख लिखने के कारण मानहानि के केस में 1882 में तिलक और आगरकर पर मुकदमा चला। 101 दिन बम्बई जेल काटना पड़ा। 1897 में ‘केसरी’ के साथ-साथ ‘पूना वैभव’, ‘मोद व्रत’ और ‘प्रतोद’ पर भी मुकदमा चला किसी ने क्षमा मांग ली तो किसी ने समझौता कर कम सजा काटी, पर केसरी ने क्षमा नहीं मांगी और आगे तिलक ने ‘अमृत बाजार पत्रिका’ के सम्पादक ‘मोती लाल घोष’ को लिखा भी कि- ‘अपमानित होकर पूना में रहने से अंडमान में रहना अच्छा है।’ आज के पत्रकारों को तिलक के पत्रकारिता के नजरिये से भारत को देखना होगा। तिलक की निडरता और जरूरत पड़ने पर उग्रता को व्यवहार में लाना होगा। तिलक लिखते हैं कि- ‘राजनीतिक अधिकार कभी भी भीख मांग कर प्राप्त नहीं किया जा सकता। कोई भी सरकार हो स्वार्थी होगी, जब एक राष्ट्र दूसरे राष्ट्र पर अपना आधिपत्य कायम करता है तो वह यह अपने स्वार्थ के लिए करता है, शासित लोगों के भले के लिए नहीं। अगर जनता सत्ता चाहती है तो उसे आपको लड़कर प्राप्त करनी होगी। अगर शासक यह कहे कि वे आपको प्रशासन तब देंगे जब आप शासन करने योग्य हो जायें तो उनकी बात को आँख मूंदकर नहीं मान लेना चाहिए। हमें मेहनत करनी चाहिए और उसके लिए प्रयास करना चाहिए। यह सब बातें औपनिवेशिक काल में लिखी जा रहीं हैं पर हर सदी में चरितार्थ होंगी। पत्रकारिता में तिलक की प्रासंगिकता पर तिलक के मृत्योपरान्त ‘सुबोध’ पत्रिका ने लिखा कि- “केसरी की विजय, तिलक की विजय थी, उन्होंने अपनी पत्रकारिता से दिखा दिया था कि यदि पत्रकारिता किसी होशियार, दूरगामी, शक्तिशाली और योग्य तथा प्रथम कोटि के विद्वान के हाँथ में आती है तो वह कितनी बड़ी शक्तिशाली हथियार हो सकती है।”
भारतीय पत्रकारिता की यात्रा में तिलक का नाम साहस के परिचायक, निडरता एवं स्वाभिमान के साथ जोड़ कर देखा जाता है। पर वह दौर जब अभी पत्रकारिता को उपकरण के तौर पर राष्ट्रीय आंदोलन में शामिल नहीं किया गया था, उस दौर में एक अंग्रेज सरकारी मुलाजिम जिसे भारतीय पत्रकारिता की दुनिया में बहुत आदर के साथ जाना जाता है जिसका नाम जेम्स आगस्टस हिक्की था, ने कितनी बड़ी बात कही कि “मुझे अपने मन और आत्मा के लिए स्वतंत्रता मोल लेने का अपने शरीर को दास बनाने में प्रसन्नता होती है। पत्र के माध्यम से स्वेच्छाचारी प्रशासन के प्रतिरोध का पुराना इतिहास है पर आधुनिक काल में देखा जाये तो वारेन हेंस्टिंग के दमनात्मक शासन के खिलाफ मुखर होकर पहला विरोध बंगाल गज़ट में जेम्स हिक्की लिख रहे हैं, जो आगे चलकर अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ क्रांन्तिकारी प्रतिरोध का एक बेहतरीन उपकरण नजर आती है। पत्रकारिता, जिसने कमोबेश समूचे भारत और भारत से बाहर भी मुखर होकर स्वतंत्रता के संघर्ष को जारी रखा।
अंग्रेजी हुकूमत के दमनकारी रवैये का बढ़ते जाना, स्वतंत्रता आंदोलन का और प्रखर होते जाना तथा भारतीय पत्रकारिता का अतिशय उग्र होते जाना ये तीनों आयाम एक दूसरे को प्रभावित कर रहें हैं। 1929-30 का वह दौर ज़ब क्रांतिकारी आंदोलन अपने दूसरे चरण के यौवन में है, “सायमन गो बैक” के नारे से पूरा भारत उद्वेलित हो उठा है; ऐसे में भारतीय पत्रकारिता भी अपना लक्ष्य आज़ादी से कमतर किसी भी प्रकार के समझौते के लिए तैयार नहीं दिखती। अमृतसर से उर्दू मासिक पत्रिका ‘रिसाला कीर्ति’ निकलती है, मई 1929 के अंक में छपी ‘फिरोजउद्दीन मंसूर’ की कविता पर प्रतिबंध लगा था क्योंकि उसके बोल ही अंग्रेजों को भयभीत करने वाले थे-
“ज़िन्दगी आज़ादगी, आज़ादगी है ज़िन्दगी।
मौत बेहतर है अगर आज़ादिए कामिल नहीं।”
कामिल का अर्थ ‘पूर्ण स्वराज’ है, इसी पूर्ण स्वराज को लाहौर के कांग्रेस अधिवेशन में 31 दिसंबर 1929 को आखिरी लक्ष्य बनाया जा रहा है और कमोबेश समूचे देश में इस दौर में पूर्ण स्वराज से नीचे किसी भी बात पर सहमति बनती नजर नहीं आती।
राष्ट्रीय आंदोलन एवं पत्रकारिता के आदर्श की बात की जाये तो 1920 में काशी से शिवप्रसाद गुप्त ने हिन्दी दैनिक ‘आज’ के प्रकाशन को उद्धृत किये बिना बात अधूरी लगती है। ‘आज’ अखबार के मुख पृष्ठ पर ‘रामचरितमानस’ का यह उद्धरण छपा रहता था कि- “पराधीन सपनेहु सुख नाहीं।” ‘आज’ अख़बार का उद्देश्य असीमित था, इस अख़बार का लक्ष्य था देशवासियों में स्वाभिमान का संचार करना, भारतीय होने पर अभिमान हो ना कि संकोच। आगे चलकर यह अख़बार लिख भी रहा है कि “ज़ब हममें आत्म गौरव होगा तभी अन्य लोग भी हमको आदर और सम्मान की दृष्टि से देखेंगे।”
“आज” अख़बार की जो नीतियाँ बन रहीं हैं, जो उद्देश्य हैं उसके अनुमोदन का निर्धारण लोकमान्य तिलक कर रहें हैं। इसके लिए बाबूराव विष्णु पराड़कर पुणे जाकर तिलक से मिल रहें हैं, वहां तिलक दैनिक अख़बार “आज” के लिए तीन मंत्र दे रहें हैं-
1. देश के लिए स्वराज्य प्राप्त करने का प्रयास किया जाये।
2. जनता को उसके अधिकारों की जानकारी दी जाये।
3. कर्तव्य पालन में कोई बाधा आये तो उसकी चिंता न करें और ईश्वर पर विश्वास करें।
पराड़कर के बाद ‘खाडिलकर’ दैनिक पत्र “आज” के संपादक बने, राष्ट्रीय आंदोलन के दौरान संपादकों के लिखें लेख से उनका भारत के प्रति आस्था, किन-किन मूल्यों पर आज़ादी मिली और भावी भारत के लिए सजगता एवं चिंता को 15अगस्त 1947 को खाडिलकर द्वारा लिखे गए पीड़ा से समझा जा सकता है… “स्वतंत्र होने के साथ-साथ हमारे कंधों पर जितना भारी उत्तरदायित्व आ गया है, उसे हमें नहीं भूलना चाहिए। हमारी लेशमात्र की आसावधानी का परिणाम घातक हो सकता है। हम ज़रा चूके नहीं कि सर्वनाश हमारे सम्मुख उपस्थित है।” ऐसा नहीं कि अखबारें सिर्फ राष्ट्र हित में ही लिख रहीं हैं या उग्र भाव में ही लिख रहीं हैं पत्रकारिता महिला उत्थान, भारत के भविष्य बच्चों एवं सामाजिक कुरीतियों के खिलाफ भी मुखर होकर लिख रही है। जरूरत पड़ने पर करुणा के सागर भी उड़ेल रही है पत्रकारिता।
लाहौर से 1930 में हिन्दी मासिक पत्रिका “बलिदान” का प्रकाशन आरम्भ होता है। इसके 1935 के अप्रैल के अंक में ‘हरिकृष्ण प्रेमी’ की कविता छपती है… जिसमें एक भाई अपने बहन से कह रहा है-
“अंतिम बार बाँध ले राखी, कर ले प्यार आखिरी बार।
मुझको जालिम ने फांसी की डोरी कर ली है तैयार।।”
परतंत्रता की विभीषिका ने समाज के सभी तबकों को उद्वेलित कर दिया था। अंग्रेजों को उखाड़ फेंकने की तड़प और अपने हाथों से अपने हिंदुस्तान का भाग्य लिखने की छटपटाहट ने दलित वर्ग के हाथों में भी लाठी और कलम पकड़ा दिया। यह इतिहास का एक दूषित सत्य है कि राष्ट्रीय आंदोलन में दलित पत्रकारों की भूमिका न्यूनतम थी। इसका पहला कारण था इतिहास लिखने में लापरवाही एवं वस्तुनिष्ठता का अभाव एवं दूसरा महत्वपूर्ण कारण था राजनीतिक आज़ादी से ज्यादा सामाजिक साम्यता पर लेखन केंद्रित करना। दलित पत्रकारिता का आरम्भ ज्योतिबा फुले से माना जाता है। उनके दीनबंधु नामक साप्ताहिक पत्र का मुख्य विषय स्त्री व अस्पृश्य शिक्षा था। दलित पत्रकारिता में मील के पत्थर साबित हुए ज्योतिबा के शिष्य गोपाल बाबा बलंकर, जिन्होंने 1888 में “अस्पृश्यता विंध्यवासिनी” लिखा। 1886 में ज़ब अंग्रेजों ने सेना में अछूतों की भर्ती पर प्रतिबंध लगा दिया तब बाबा बलंकर के तर्कपूर्ण प्रभावी हस्तपत्र का ही परिणाम था कि अंग्रेजों को अपना निर्णय वापस लेना पड़ा और सेना में अछूतों की बहाली पुनः संभव हो सका। इस तरह दलित वर्ग के रूप में नारायण हरिवर्ते, गंगाधर नीलकंठ, जैसे कई पत्रकारों ने आज़ादी के आंदोलन में राजनीतिक आज़ादी के रूप में तो कम किन्तु सामाजिक समरसता एवं बंधुत्व भावना को केंद्र में रखकर खूब लेखन किया।
स्वतंत्रता आंदोलन में पत्रकारिता के सफ़र ने अनगिनत दमनात्मक संघर्ष झेले हैं। 1823 में ज़ब कार्यवाहक गवर्नर जनरल जान एडम ने भारतीय प्रेस पर पूर्ण प्रतिबन्ध लगा दिया तब इसके विरोध में राजा राममोहन राय ने सुप्रीम कोर्ट को ज्ञापन भेजा था कि “हर अच्छे शासक को इस बात की फ़िक्र होनी चाहिए कि वह लोगों को ऐसे साधन उपलब्ध करवाये जिसके जरिये उन समस्याओं और मामलों की सूचना, शासन को जल्द से जल्द मिल सके, जिन समस्याओं के हल में शासन के हस्तक्षेप की जरूरत है। इस महत्वपूर्ण लक्ष्य की प्राप्ति के लिए यह जरुरी है कि प्रेस को अभिव्यक्ति की आज़ादी दी जाये। भारतीय पत्रकारिता की साख गहराती ही जा रही थी जिसका परिणाम था लार्ड लिटन द्वारा वर्नाक्यूलर प्रेस एक लागू करना। पर भारतीय पत्रकारों एवं उनके समर्थन में जन भावनाओं के बाढ़ के समक्ष अंग्रेजों को पीछे हटना पड़ा और 1881 में लार्ड रिपन ने इस काले कानून को वापस ले लिया। 24 जून 1908 को बाल गंगाधर तिलक गिरफ्तार किये जाते हैं, जज के समक्ष अदालत में बहुत ही तार्किक बात रखते हैं तिलक कि “यहाँ सवाल तिलक का नहीं है। सवाल है कि क्या सरकार वाकई प्रेस की आज़ादी के प्रति ईमानदार है? क्या वह भारत में भी प्रेस को उतनी आज़ादी देने को तैयार है जो आज़ादी इंग्लैंड में प्रेस को मिली हुई है?
इस तरह स्वतंत्रता आंदोलन एवं पत्रकारिता एक साथ सशक्त होते हैं। दोनों एक-दूसरे के सहयोगी बनते हैं, पर्याय बनते हैं और सबसे बड़ी बात भारतीय पत्रकारिता में भारत प्रतिबिम्बित हो रहा है। पुरातन संस्कृति से लेकर राजनैतिक जागरण तक हर पहलू पर मुखर होकर लिख रहे हैं। औपनिवेशिक काल में भारतीय पत्रकार, अंग्रेजी हुकूमत के काले कानून, वर्नाक्युलर प्रेस एक्ट, छापेमारी, जेल यातना एवं काले पानी तक की सजा को झेल रहें हैं। लेकिन पत्रकार अपनी कलम से समझौता करते नहीं दिखते; जिससे आज के पत्रकार एवं पत्रकारिता को सीख लेनी चाहिए कि कैसे राष्ट्रीय संवर्धन हेतु सहर्ष किसी भी यातना को झेल जाने के लिए उद्यत रहते थे औपनिवेशिक काल के पत्रकार।
संदर्भ ग्रन्थ:-
1. विजयदत्त श्रीधर – भारतीय पत्रकारिता कोश खंड-एक
2. विजयदत्त श्रीधर – भारतीय पत्रकारिता कोश खंड-दो
3. आर. के. गुप्ता – हिन्दी पत्रकारिता: इतिहास एवं विकास
4. मीनाक्षी सिंह – हिन्दी पत्रकारिता का इतिहास
5. ओ. पी. शर्मा- पत्रकारिता और उसके विभिन्न स्वरुप
6. धनंजय चोपड़ा- यह जो मिडिया है
7. डा. नरेन्द्र शुक्ल- भारत में प्रेस एवं प्रेस विधि
8. डा. नरेन्द्र शुक्ल- उपनिवेश अभिव्यक्ति और प्रतिबन्ध
9. डा. नरेन्द्र शुक्ल- ब्रिटिश राज और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता
—-सुरेश राय ‘चुन्नी’, इलाहाबाद विश्वविद्यालय