एक अभिव्यक्ति : निगाहों को गुनहगार हो जाने दो

— डॉ० पृथ्वीनाथ पाण्डेय-

डॉ० पृथ्वीनाथ पाण्डेय
(प्रख्यात भाषाविद्-समीक्षक)

निगाहों को गुनहगार हो जाने दो,
होठों को गुलरुख़सार* हो जाने दो। * गुलाबफूल-जैसे
पतझर का ज़ख़्म अब भी ताज़ा है,
कैसे कहूँ, मौसमे बहार हो जाने दो।
नज़रें बात बना लेंगी बिगड़ जाने पे,
निगाहों को शर्मसार अब हो जाने दो।
निगारिश* उनकी मैंने ही तराशी है, * नक़्श
निगारख़ाने* को क़र्ज़दार हो जाने दो। * चित्रालय
परवाने की दीवानगी से सब वाक़िफ़ हैं,
उन्हें किसी पे जाँनिसार हो जाने दो।

 

 

(सर्वाधिकार सुरक्षित : डॉ० पृथ्वीनाथ पाण्डेय ; १ नवम्बर, २०१७ ईसवी)