जाने क्योँ-कैसा प्रतिबन्ध!

पानी पर ठहरा सम्बन्ध,
जाने कैसा क्योँ प्रतिबन्ध?
होठोँ पर मृदु हास-रेखाएँ,
हृदय दिखाता है अनुबन्ध।
चिरसंचित अभिलाष खड़ा है,
प्रश्न उठाता है सम्बन्ध।
उम्र है घटती-कटुता बढ़ती,
अनदेखी कर लेता अन्ध।
अनाचार है आँख दिखाता,
मुक्त दिख रहे सारे बन्ध।
शील-हरण होती शुचिता की,
फैल रही चहुँ दिशि दुर्गन्ध।

(सर्वाधिकार सुरक्षित– आचार्य पं० पृथ्वीनाथ पाण्डेय, प्रयागराज; ४ नवम्बर , २०२४ ईसवी।)