1991 में पापा ने कानपुर-रायबरेली रोड पर बने इस दोमंजिला घर की शुरुआत मुख्य सड़क की तरफ से दो कमरे बनाकर की थी।
यह सबसे आगे वाला कमरा जिसमें अब शटर लगाकर शॉप का रूप दे दिया गया है, शुरुआत से ही बहुउद्देश्यीय था। मेहमानों के आने पर यह कमरा गेस्ट रूम बनता था। हमारे लिए यह स्टडी रूम-कम-बेडरूम था। कभी ज्यादा रिश्तेदार आ जाते या गांव के लोग रात होने पर यहीं रुक जाते तो डोरमेट्री बन जाता ।
इस कमरे में दो दरवाजे हैं। मुख्य दरवाजा कानपुर-रायबरेली रोड पर खुलता है और साइड का दरवाजा घर की गैलरी में खुलता है। मुख्य दरवाजा खोल दो तो सड़क पर पूरी दुनिया आती- जाती दिखती है- पैदल, सायकिल, रिक्शे, मोटर गाड़ी से।
साइड का दरवाजा खोल दो तो आंगन से बाहर आते या वापस आंगन की तरफ जाते घर के सदस्य दिखते हैं। दोनों दरवाजे बंद कर दो तो यह एकांत रूम, साधना रूम बन जाता है, पूरी दुनिया से कट ऑफ। फिर इसमें शांतिपूर्वक बैठकर मां सरस्वती की निर्विघ्न आराधना की जा सकती है।
जिस तखत (चौकी) पर मैं बैठा हूँ, वह भी इस कमरे की तरह शुरुआत से ही बहुउद्देश्यीय रहा है। मेहमानों के लिए यह कुर्सी और सोफे का काम करता था। मेरे लिए सुबह- शाम स्टडी टेबल रहता और रात में बेड बन जाता था। कमरे में पुताई -रंगाई के समय सीढ़ी, घोड़ी का काम करता और पंखा, बल्ब लगाने के समय स्टूल, कुर्सी बन जाता। जब घर में कुर्सियां आई तो यह डाइनिंग टेबल की भी भूमिका निभाने लगा।
पापा ने न जाने क्या विचारकर इस तखत का नाम ‘विक्रमादित्य का तखत’ रख दिया था। वह कहते थे कि इसमें बैठकर पढ़ाई करने वाला कभी अपने विद्यार्थी गुण से अन्याय नहीं कर पायेगा। यानि किताब पढ़ने के लिए ही खोलेगा, घरवालों या किसी और को दिखाने के लिए नहीं। वह यह भी कहते थे कि इसमें शयन करने वाला श्वान निद्रा ही ले पायेगा, निःधड़क, घोड़े बेचकर नहीं सो पायेगा, एक आवाज पर उठ बैठेगा।
नवीं कक्षा के बाद यह तखत ही मेरा स्टडी टेबल-कम-बेड था। मैं विद्यालय जाने से पूर्व सुबह और विद्यालय से आने के बाद शाम को, ज्यादातर देर रात तक इसी तखत पर बैठकर पढ़ता था। रात को सोते समय अम्मा एक गिलास दूध में चीनी या गुड़ डालकर मुझे दे देती। उसे पीने के बाद मैं एक लोटे में पानी भरकर, उसे एक प्लेट से ढककर इसी तखत पर सो जाता।
उस समय हमारे पास अलार्म घड़ी नहीं थी। मोबाइल का तो नाम भी नहीं सुना हुआ था। इंटरमीडिएट में सुबह 6:00 से मेरा केमिस्ट्री का ट्यूशन हुआ करता। ऐहार इंटर कॉलेज के शिक्षक श्री सुरेश मिश्रा जी हमें केमिस्ट्री पढ़ाते थे। एक घंटे के ट्यूशन में वह 45 मिनट नया पाठ पढ़ाते और 15 मिनट पुराना पाठ पूछते। न बता पाने पर छड़ी से हथेली पर मारते थे। आज की तारीख में प्राइमरी के बच्चों पर भी हाथ उठाना संज्ञेय अपराध है।परंतु उस समय मार- मारकर केमिस्ट्री के equation याद करा देना ही उनका यूएसपी था। मार खाने के लिए उनके पास छात्रों की भीड़ लगी रहती थी। जो खुद न जाते, उन्हें उनके अभिवावक जबर्दस्ती छोड़ आते थे।
मार से बचने के लिए सभी छात्र पढ़कर ही उनके पास आते थे। जो न पढ़कर आते, वह कई बार पिटते।इसलिए बिस्तर से उठकर फ्रेश होना। दातून-मंजन करने के बाद चाय पीकर केमिस्ट्री का सबक याद करना मेरी दिनचर्या में शामिल हो चुका था। मैं आज भी गर्व से कहता हूं कि मैं ट्यूशन के लिए कभी 1 मिनट के लिए भी लेट नहीं हुआ।
मेरे साथ बैच में पढ़ने वाले लड़के पाठ न याद होने पर तमाम तरह के बहाने बनाते। कोई कहता कि नींद नहीं खुली, कोई बताता कि घर में किसी ने जगाया ही नहीं। एक लड़की जो संपन्न परिवार से थी, वह तो अक्सर ही लेट आती थी। हालांकि उसके पास इसके लिए रेडीमेड बहाने तैयार रहते थे। भोली सी सूरत बनाकर बोलती- “सर, 1.आज अलार्म की आवाज नहीं आई।
- आज तो सर अलार्म की बैटरी डाउन हो गई ।
- सर जी क्या बताएं आज अलार्म बजा लेकिन आलस्यवश एक बार बंद कर दिया फिर दोबारा बजा तो देर हो गई।
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एक दिन वह मुझसे पूछने लगी -” विनय , तुम कभी लेट नहीं होते! क्या तुम्हारी अलार्म घड़ी कभी खराब नहीं होती ?
कभी उसका सेल डाउन नहीं होता??”
मैंने उसे बताया-” मेरी अलार्म घड़ी यांत्रिक नहीं है, बैटरी से नहीं चलती है। इसलिए कभी धोखा नहीं देती।”
वह आश्चर्यचकित हो गई। मुझसे पूछने लगी-” ऐसी कौन सी घड़ी है? मुझे भी बताओ, मैं भी ख़रीदूँगी।”
तब मैंने उसे बताया -“
मेरी अलार्म घड़ी अम्मा हैं। इसीलिए मेरी घड़ी की बैटरी कभी डाउन नहीं होती। बिना रुके, बिना थके वह मुझे गर्मी-सर्दी सभी मौसम में बिल्कुल समय से जगाती आई हैं। उनकी आवाज सुनते ही उठ जाना, मेरे दिमाग के सॉफ्टवेयर में ‘बाय डिफ़ॉल्ट’ सेट हो चुका है।”
खैर इस घटना के दशकों बीत चुके हैं। इस दौरान मां गंगा में बहुत जल बह चुका।मैं छात्र से अधेड़ हो गया हूँ। पत्नी-बच्चों वाला हो गया हूँ। वायुसेना से रिटायर हो चुका हूं। एक अच्छे संस्थान में पुनः सेवा कर रहा हूँ।
आज वर्षों बाद फिर सबसे आगे वाले कमरे के उसी तखत पर अकेले बैठा हूं। कमरा वही है, सामने का दरवाजा अब भी कानपुर – रायबरेली रोड पर खुलता है। साइड का दरवाजा भी घर की गैलरी की तरफ ही खुलता है। पहले ही की तरह दोनों दरवाजे बंद कर देने पर यह कमरा साधना कक्ष बन जाता है।
बस इस साधना कक्ष के निर्माण के लिए अपनी तमाम स्त्रीसुलभ इच्छायें, आकांक्षायें होम कर देने वाली गृहस्वामिनी नहीं हैं। बिना नागा वर्षों तक मुझे सुबह उठाने वाली अलार्म घड़ी नहीं है।
08 जून 2024 को मेरी अलार्म घड़ी, पूरे परिवार की अलार्म घड़ी हमेशा के लिए चुप हो गई है।
(विनय सिंह बैस)
जिनकी अलार्म घड़ी भगवान के पास चली गयी है।
08 अगस्त 2024