“सबल पुरुष यदि भीरु बनें तो हमको दे वरदान सखी” : सुभद्रा कुमारी चौहान (पुण्यतिथि विशेष)

● आज (१५ फ़रवरी) सुभद्रा कुमारी चौहान की पुण्यतिथि है ।

-डॉ० पृथ्वीनाथ पाण्डेय (भाषाविद्-समीक्षक)

डॉ• पृथ्वीनाथ पाण्डेय (भाषाविद्)

सुभद्रा कुमारी चौहान : एक दृष्टि में

जन्म— १६ अगस्त, १९०४ ई० को निहालपुर, इलाहाबाद

मृत्यु-– १५ फ़रवरी, १९४८ ई० को नागपुर-जबलपुर के मध्य एक मार्ग-दुर्घटना में

पिता— ठाकुर रामनाथ सिंह

पति— ठाकुर लक्ष्मण सिंह

कृतियाँ— नीम, आराधना, झाँसी की रानी, मातृमन्दिर में, कोयल, जलियाँवाला बाग में बसंत, स्वदेश के प्रति, समर्पण (कविताएँ); बिखरे मोती, उन्मादिनी, सीधे-साधे चित्र (कहानी-संग्रह), मुकुल

सम्मान— सेकसरिया पारितोषिक

हठ और इच्छाशक्ति मनुष्य को उसके गन्तव्य तक ले जाती हैं, इस सत्य से साक्षात् कराती हैं सुभद्रा कुमारी चौहान। उन दिनों देश पराधीन था। प्रत्येक भारतवासी अपनी स्वतन्त्रता के लिए प्राण-पण से लगा हुआ था। उन्हीं दिनों इलाहाबाद में एक ऐसी बिटिया ने जन्म लिया था, जो साहित्य-साधिका के रूप में प्रतिष्ठित तो हुई ही, क्रान्तिकारिता के क्षेत्र में भी सुभद्रा जी ने वह कर दिखाया, जिससे मर कर भी वे अमर बन गयी है; उनकी कविताएँ बच्चे-बच्चे का स्वर बन चुकी हैं, “खूब लड़ी मरदानी वो तो झाँसी वाली रानी थी।” विद्यार्थी-जीवन में ही उस बालिका की सारस्वत प्रतिभा देखते ही बनती थी। इलाहाबाद-स्थित क्रॉस्थवेट स्कूल में शिक्षा प्राप्त करनेवाली नौ वर्षीया सुभद्रा कुमारी की पहली कविता ‘नीम’ यहीं से मुद्रित होनेवाली प्रतिष्ठित साहित्यिक पत्रिका ‘मर्यादा’ में प्रकाशित हुई थी, तब वह बालिका ‘सुभद्रा कुँअरि’ के नाम से रचना करती थी और उसी नाम से छपती भी थी। छात्रा सुभद्रा कुशाग्र बुद्धि की थी और आशु कवयित्री भी। वह राह चलते ही किसी भी विषय पर कविता रच लेती थी। सुभद्रा की एक सहेली थी, महादेवी, जो आगे चलकर प्रख्यात कवयित्री महादेवी वर्मा के नाम से विख्यात हुई थीं।

कविता की ही भाँति कहानियों में भी सुभद्रा की मति-गति-रति देखते ही बनती है, जो नारी-स्वातन्त्र्य का उद्घोष करती हुई जान पड़ती हैं। सुभद्रा जी नारी की वैयक्तिक स्वतन्त्रता और उससे सम्बद्ध यथार्थ को स्वर देने के लिए अपनी कविताओं और कहानियों के माध्यम से छायावादी भाषा से विद्रोह करती लक्षित होती हैं। ऐसा इसलिए भी उनका समग्र जीवन-दर्शन जीवन के सहज और आवश्यक प्रयोजनों के साथ जुड़ा हुआ था। सुभद्रा नौवीं कक्षा तक ही अध्ययन कर पायी थीं, कारण कि उस बालिका का विवाह अल्पावस्था में ही १९१९ ई० में जबलपुर के ठाकुर लक्ष्मण सिंह के साथ कर दिया गया था, जो आगे चलकर प्रख्यात नाटककार बने थे। बालिका सुभद्रा बचपन से ही हठी और विद्रोही स्वभाव की थी; वह किसी भी प्रकार का अन्याय सहन नहीं कर पाती थी। पराधीन भारत में अँगरेज-राज में भारतीयों पर किये जा रहे अत्याचारों को सुभद्रा जी अपनी रचनाओं के माध्यम से व्यक्त तो कर ही देती थीं, खुले मैदान में भी अँगरेज़ों के सामने ताल ठोंकने से चूकती नहीं थीं। वे महात्मा गांधी के सत्याग्रह से अत्यन्त प्रभावित थीं। यही कारण था कि वे अपने पति के साथ स्वाधीनता-आन्दोलन में कूद पड़ीं। वर्ष १९२२ में जबलपुर में किया गया सत्याग्रह ‘झण्डा सत्याग्रह’ देश का प्रथम सत्याग्रह था और सुभद्रा जी प्रथम सत्याग्रही थीं। उनका आन्दोलन चलता रहा और कारागार-यात्रा भी चलती रही। १५ फ़रवरी, १९४८ ई० को दोपहर का समय था। वे नागपुर से जबलपुर के लिए लौट रही थीं। उनका पुत्र कार चला रहा था; उसी बीच सड़क पर कार के सामने कुछ मुर्ग़ियाँ आ गयी थीं, जिन्हें बचाने के लिए सुभद्रा जी ने कहा। अचानक कार की दिशा मोड़ने के कारण उनकी कार सड़क के किनारे एक वृक्ष से टकरा गयी थी। उस भीषण दुर्घटना में ४४ वर्षीया सुभद्रा जी का शरीरान्त हो गया था। उनके निधन पर माखनलाल चतुर्वेदी के मार्मिक स्वर फूट पड़े थे, “सुभद्रा जी का आज चल बसना प्रकृति के पृष्ठ पर ऐसा लगता है, मानो नर्मदा की धारा के बिना तट के पुण्य तीर्थों के सारे घाट अपना अर्थ और उपयोग खो बैठे हों।”

उस वीरांगना कवयित्री की स्मृति में जबलपुर-निवासियों ने चन्दा एकत्र करके वहाँ के नगरपालिका-प्रांगण में सुभद्रा जी की एक मानवाकृति प्रतिमा की स्थापना करायी थी, जिसका अनावरण २७ नवम्बर, १९४९ ई० को उनके बचपन की प्रिय सहेली और प्रसिद्ध कवयित्री महादेवी वर्मा ने किया था, जिसे आचार्य भदन्त आनन्द कौसल्यायन, इलाचन्द्र जोशी, हरिवंश राय बच्चन, डॉ० रामकुमार वर्मा आदिक ने साक्षी दिया था। उसी अवसर पर महादेवी जी ने एक सारगर्भित बात कही थी, “नदियों का कोई स्मारक नहीं होता।” सुभद्रा जी के सम्मान में भारतीय डाक-तार विभाग’ की ओर से ६ अगस्त, १९७६ ई० को २५ पैसे का एक डाक-टिकट प्रसारित किया गया था तथा ‘भारतीय तटरक्षक सेना’ ने २८ अप्रैल, २००६ ई० को नवीन तटरक्षक जहाज़ का नाम ‘सुभद्रा’ रखा था। उनके जीवन की अन्तिम रचना थी, “मैं अछूत हूँ, मन्दिर में आने का मुझको अधिकार नहीं है। किन्तु देवता यह न समझना, तुम पर मेरा प्यार नहीं है।”