विश्व की राजनीतिक क्षितिज पर देदीप्यमान महानायिका इन्दिरा प्रियदर्शिनी की पुण्यतिथि (३१ अक्तूबर) पर सम्पूर्ण भारतवासियों की श्रद्धाञ्जलि

विश्व की राजनीतिक क्षितिज पर देदीप्यमान महानायिका इन्दिरा प्रियदर्शिनी की पुण्यतिथि (३१ अक्तूबर) पर सम्पूर्ण भारतवासियों की श्रद्धाञ्जलि :————————

अभूतपूर्व आत्मविश्वास और कठिनतर परिस्थितियों में भी धैर्य खोये बिना स्वविवेक से निर्णय करने की सामर्थ्य और क्षमता-जैसे विलक्षण गुणों ने ही श्रीमती इन्दिरा गान्धी को राजनीति के शीर्ष शिखर पर समासीन कराया था। वे भारत की प्रथम महिला प्रधानमन्त्री तो थीं ही, विश्व की ऐसी प्रथम महिला भी थीं, जो किसी लोकतन्त्रीय देश की ‘प्रधान’ के रूप में पद-प्रतिष्ठित रहीं।

“मैंने अतीत को ध्यान से पढ़ा है; वर्तमान को मनोयोग से सुना है तथा भविष्य को प्रत्यक्ष की भाँति देखा है”— श्रीमती इन्दिरा गान्धी

भारत ही नहीं, अपितु शेष विश्व मनुष्य के लिए शान्तिपूर्वक रहने-योग्य स्थान बने, बालपन से संस्कार के रूप में जाग्रत हुई इस आकांंक्षा को मूर्त रूप देने के लिए श्रीमती गान्धी प्रयत्नशील रहीं। विदेशी विषयों में ‘गुटनिरपेक्ष आन्दोलन’ और स्वदेश में लोकतन्त्र के प्रति उनकी आस्था विरासत में मिली भारत के एकात्मिक जीवनमूल्यों की ही अभिव्यक्ति है।

श्रीमती गान्धी की जन्मतिथि के अवसर पर ‘भारत-कोकिला’ सरोजिनी नायडू ने उनके पिताश्री पं० जवाहरलाल नेहरू को यह बधाई-तार सम्प्रेषित किया था, “यह पुत्री भारत की नयी आत्मा है।” अब समझ में आता है कि कालदर्शी कवयित्री को उस समय जो अनुभव हुआ था, वह पूर्णत: सच सिद्ध हुआ था। जन्म के समय पितामह पं० मोतीलाल नेहरू ने उन्हें आशीर्वाद दिया था,“देखना तो सही, यह बेटी हज़ारों बेटों से सवाई होगी।” यह आशीर्वाद समय ने साकार कर दिखाया था। पिता पं० जवाहरलाल नेहरू ने उन्हें ‘क्रान्तिबाला’ की संज्ञा से विभूषित किया था और क्रान्तिबाला का वह क्रान्ति-कथानक युग की समयशिला पर अमिट रूप में उत्कीर्ण होता रहा।


इन्दिरा गान्धी और डॉ. पृथ्वीनाथ पाण्डेय की वार्त्ता का संक्षिप्त अंश


पृथ्वीनाथ— देश आज़ाद हुआ था। आप २४ जनवरी, १९६६ ई० को प्रधानमन्त्री बनी थीं। उस समय की परिस्थितियाँ कैसी थीं?
इन्दिरा गान्धी— उस समय बड़ी कठिन परिस्थिति थी।

पृथ्वीनाथ— ज़रा खुलकर बताइए न!
इन्दिरा गान्धी— १९६५ के भारत-पाक-युद्ध से उत्पन्न समस्याएँ देश के सामने थीं। १९६२ में चीन के साथ हुए प्रथम युद्ध के कटु अनुभव और उसके दुष्परिणामस्वरूप पण्डित जी का निधन हो चुका था। इस सदमे से राष्ट्रवासी और राष्ट्रनायक सभी स्तब्ध थे। १९६५-६६और १९७२-७४ में अनेक स्थानों पर भीषण सूखा पड़ा था। १९६७ से १९७१ तक देश में जटिल राजनीतिक अस्थिरता रही। साम्प्रदायिक तनाव और दंगों की तीव्रता ने उग्र रूप धारण कर लिया था। तेलंगाना (आन्ध्र) में क्षेत्रीय उपद्रव हुए थे। अवसरवादी तत्त्वों ने स्वयं काँग्रेस के ही टुकड़े-टुकड़े करके कमज़ोर कर देने की साज़िश रचीं। गुजरात और बिहार में प्रजान्त्र-विरोधी आन्दोलन शुरू हो गये थे। पश्चिमी पाकिस्तान के दमनचक्र से त्रस्त पूर्व-पाक (अब बाँग्लादेश) से एक करोड़ शरणार्थी भारत आये थे। ९० हज़ार पाक-युद्धबन्दी, रेलकर्मियों की हड़ताल, अरब राष्ट्रों-द्वारा पेट्रोल के दाम बढ़ाने से उत्पन्न ऊर्जा-और विश्वव्यापी मुद्रासंकट देश के सामने जटिल अवरोध के समान उपस्थित हो जाते थे।

रह-रहकर चर्चा होती थी– अब देश का क्या होगा?