जीवन मूल्य : मानव तुम लोलुपता छोड़ों , कुछ धर्मशील ही बन जाओ

जगन्नाथ शुक्ल, इलाहाबाद

पथ प्रवीण होता अनुरागी,

जो संघर्ष निरन्तर करता है।
पथ पार चला जाता बैरागी,
जो ध्यान समर्पित रखता है।।
चलो ‘जगन उस पार चले ,
इस पार नहीं कुछ रखा है।
केवल जीवन का अंतर्द्वंद्व,
मायामोह ने घेर कर रखा है।।
जीवन की विकट समीक्षा में,
कुछ कर्मशील ही बन जाओ।
मानव तुम लोलुपता छोड़ों ,
कुछ धर्मशील ही बन जाओ।।
सारा जीवन नीरस ही है ,
यदि न किया कोई उपकार।
सोचो तुम क्या बतलाओगे,
जब जाओगे भवसागर पार।।
बड़ा कठिन है मानव बनना,
हर पल नई परीक्षा है।
खुद की ही खुद के हाथों भी,
मुँह बाये खड़ी समीक्षा है।।
प्रतिकार करो उन पक्षों का,
जो मानवता को ठगते हैं।
उपकार करो उन तथ्यों का,
जहाँ जीवन मूल्य पनपते हैं।।