लेखनधर्मिता का बाज़ारवादी चरित्र

— आचार्य पं० पृथ्वीनाथ पाण्डेय

आपकी लेखनी यदि ‘पराधीनता’ की ओर बढ़ने के लिए मचल रही हो तो उसे पहले दुलराइए-पुचकारिए- समझाइए; उसके बाद भी उस धृष्ट की अक्खड़पना दूर न हो तो झट उसे तोड़ फेंकिए, फिर एक ‘शुभ्र विचार’ के साथ नव उन्मेषशालिनी प्रज्ञा को जाग्रत् करते हुए, विचार-पथ पर अपनी दृष्टि निक्षेपित कीजिए।

देश में भाषा, साहित्य, समीक्षा आदिक क्षेत्रों-विषयों के अन्तर्गत बुद्धिजीवियों का एक वर्ग ऐसा है, जो आज़ादी के बाद से अब तक सुविधाभोगी रहा है और अपने शब्द और लेखनी बेचता आ रहा है। उन्हीं में से ऐसे निरीह लोग भी हैं, जो ‘उच्च पदस्थ तो रहे हैं; बाह्य रूप में चर्चित, विश्रुत, प्रख्यात, शोहरतयाफ़्ता तो रहे हैं; परन्तु ‘वेश्या से भी निकृष्टतर धन्धा’ ‘राजनीति’ के सम्मुख वे गिड़गिड़ाकर साहित्यिक संस्थानों के मठाधीश बन जाते हैं— वह चाहें ज्ञानपीठ संस्थान हो, साहित्य एकेडेमी हो, केन्द्रीय हिन्दी संस्थान, आगरा हो, उत्तरप्रदेश हिन्दी संस्थान, लखनऊ हो, हिन्दुस्तानी एकेडेमी, इलाहाबाद हो, मध्यप्रदेश साहित्य परिषद्, भोपाल हो अथवा देश का कोई भी साहित्यिक संस्थान हो। ‘मुहल्ले-स्तर’ की ‘भाषा-साहित्य’ का संज्ञान नहीं, जबकि संस्थाओं के नाम पट्टिका (बैनर) पर ‘अन्तरराष्ट्रीय’ बताया जाता है। सत्य यह है कि भाषा, व्याकरण, भाषाविज्ञान, भाषाशास्त्र, साहित्य, समीक्षा की किंचिन्मात्र संबोध से परे ऐसे बहुरूपिये दुकानदारी करने में माहिर ‘अन्तर्राष्ट्रीय’ की सुगन्ध और स्वाद कैसा होता है, बताने में अक्षम रहते हैं। इन सभी संस्थानों में मक्कारों और धूर्त्तों ने कुण्डली मारकर आसन जमा लिये हैं। इन सभी से ‘भाषा, व्याकरण, साहित्य, समीक्षादिक पर प्रखरता के साथ वैचारिक और तार्किक संवाद कीजिए तो बग़लें झाँकते नज़र आयेंगे। ‘चाण्डाल चौकड़ी’ का जमावड़ा इन संस्थानों के चरित्र को विकृत करता आ रहा है। प्रतिवर्ष करोड़ों रुपये के पुरस्कार अयोग्य और चाटुकार चट करते आ रहे हैं और अपनी बुद्धिजीविता पर गर्व करनेवाले लोग विरोध करने का साहस तक नहीं जुटा पाते।

इन संस्थानों में अधिकतर ऐसे ही अपंग लोग जमे हुए हैं, जो शिक्षाजगत् से सम्बद्ध रहे हैं। सत्ताधारियों के चरण-चुम्बन कर, निदेशक, अध्यक्ष आदिक नामोंवाली कुर्सियों पर बैठकर उक्त प्रकार के ‘नख-शिख’ आचरणहीन लोग जब नैतिकता और आदर्श की बातें करते हैं और मंच से ‘सदाचार’ की ज़ह्रीली सुई चुभोते हैं तब मन-प्राण आक्रोशमय हो जाता है।

राजनीति तो व्यक्ति-व्यक्ति की रक्तशिराओं में है। ऐसे में, मात्र राजनीति को दोषारोपित करना उचित नहीं है। प्रश्न है, अनुशासन, आत्मा की आवाज़, ईमानदारी, न्याय, नैतिकता आदिक उदात्त गुण-धर्म अकर्त्तव्यपरायणता के सम्मुख नतमस्तक क्यों हो चुके हैं?

साहित्यकारों का आत्मविश्वास डगमग होता जा रहा है। यही कारण है कि साहित्यकारों-लेखकों की एक कोटि ऐसी है, जिसके अन्तर्गत आनेवाले ऐसे लोग सामान्य स्तर के भी पुरस्कार-सम्मान झटकने के लिए किसी भी हद तक गिरने के लिए प्रस्तुत रहते हैं। आश्चर्य तब और होता है जब भाषा, व्याकरण तथा साहित्य-स्तर पर खोखले लोग (महिला-पुरुष) साहित्य की ‘प्राविधिक’ दुकानें खोलकर ‘रजिस्ट्रेशन’ कराने के नाम पर उन वस्तुओं की बिक्री कर रहे हैं, जिनकी समझ उनमें भी नहीं। दूसरे शब्दों में— दो हज़ार रुपये फेंकिए और तुलसी, कबीर, मीराँ, प्रेमचन्द, महादेवी, निराला, अज्ञेय, मुक्तिबोध, पराड़कर, आत्माराम आदिक नामित पुरस्कार के रूप में अपने घर ले आइए।

जो महिला-पुरुष हिन्दी-भाषा के ‘स्वर-व्यंजन’ तक न सुना सकते और न लिख सकते हैं, उन्हें ‘हिन्दी-गौरव’ और ‘हिन्दीभाषा’, ‘हिन्दीसाहित्य’, ‘हिन्दी-कवि’, ‘हिन्दीकवयित्री’ आदिक प्रकार के सम्मान मिल जाते हैं; उस पर आश्चर्य यह कि ऐसे लोग दाँत निपोरते हुए, पुरस्कार-सम्मान लेकर चलते बनते हैं, फिर समाचारपत्रों में सुर्ख़ियों में छपवाया जाता है— अमुक महोदय/ महोदया को हिन्दी-भाषा की अनन्य सेवा के लिए ‘हिन्दी-गौरव’, ‘हिन्दीसेवी सम्मान’ ‘हिन्दीभाषा-भूषण,’हिन्दी-सम्राट’, ‘हिन्दी-महारानी’ आदिक सम्मानों से सुशोभित किया गया। ऐसे सम्मानों को ‘हथियाने’ के पीछे कितने प्रकार के ‘दुष्कर्म’ छुपे रहते हैं, उन्हें भी जानने की आवश्यकता है; क्योंकि ‘यौन-कुण्ठा’ से पीड़ित-निपीड़ित महिला-पुरुष साहित्यिक-राजनीतिक मठाधीशों की संख्या में कहीं-कोई कमी देखने को नहीं मिल रही है, अपितु जिधर दृष्टि जाती है उधर ही बड़ी संख्या में कुण्ठित-लुण्ठित चेहरे दिख जाते हैं। इनका ‘स्टिंग ऑपरेशन’ करने-कराने से जो निष्कर्ष आयेगा, उस पर सी०बी०आई० जाँच अपरिहार्य बन सकती है।

इन विसंगतियों से तभी दूरी बन सकती है जब साहित्यकार लोग ऐसी संस्थाओं से दूरी बनाकर शब्दसाधना में प्रवृत्त होंगे। ये सभी पुरस्कार-सम्मान शब्दसाधना-पथ पर अवरोध बिछाते हैं। वे संस्थाएँ और उसके संचालक अत्युत्तम हैं, जो लघु स्तर पर सारस्वत आयोजन करते हैं और योग्यता को परखने के बाद वास्तविक प्रतिभाओं को समादृत करते हैं; किन्तु उनमें भी में अधिकतर ऐसे चेहरे हैं, जो पाँव से सिर तक चाटुकार और अतिरिक्त महत्त्वाकांक्षावाले दिखते हैं। अब ऐसे सभी ‘उधारी’ क़लमकारों को अपने से सुदूर करने की आवश्यकता है, ताकि सहज और समर्थ शब्दधर्मी निरापद रहकर अपनी कृतिधर्मिता के साथ न्याय कर सकें।

(सर्वाधिकार सुरक्षित– आचार्य पं० पृथ्वीनाथ पाण्डेय, प्रयागराज; ३० जुलाई, २०२० ईसवी)