वजह या बेवजह : ग्लानि

महेन्द्र नाथ महर्षि (सेवा•नि• वरिष्ठ अधिकारी, दूरदर्शन), गुरुग्राम

2020 जनवरी के महीने में ठंड कुछ ज़्यादा पड़ी। मौसम बड़ा ही असामान्य (unpredictable) बना रहा। कभी घना कोहरा तो कभी धुंधला आसमान, बेवक्त की बौछार , तो बादलों की ओट में छिपता-झांकता सूरज, जो इसी दौरान लम्बे ग्रहण से भी दुखित हुआ। चाँद भी ग्रसित होने इसी माह आया।

मौसम की इस चपेट में फुर्र-फु्र्र उड़ने वाले परिन्दे सूरज के ढलते ढलते नीड़ में दुबकने के लिए लौट जाते। फिर भी खबरें आती थीं कि अनेक पंछी ठंड की मार से ठंडे हो गए। कुछ पंछी घोंसले बनाने के माहिर नहीं होते। वे किसी ओट में रात बिता लेते हैं। शहरी आबादी में रहने वाले परिन्दों की जमात में कबूतर एक ऐसा ही प्राणी है।

मेरे अपार्टमेंट के इर्द-गिर्द बहुत से कबूतर उड़ते ठुमकते दिन भर खुली जगहों पर गुटकरगूं करते , इधर फुदकते , उधर लपकते , जगह जगह बीट करते , पानी में छपके लगाते या बारीक चोंच से पानी गुटकते , मगर कभी भी लड़ते नज़र नहीं आते। ये घोंसले दार नहीं होते हैं इसलिए , सूरज ढलते ही जहां जगह दिखी वहीं शाम का आशियाना बना लेते हैं। बशर्ते की इन्हें उस जगह से कोई उड़ा न दे , तो जोड़े से ये रोज शाम का झुटपुटा होते ही , उसी आशियाने में पहुँच कर अपनी रात गुज़ारने की आदत पाल लेते हैं। अगर यह जगह ऐसी हो , जैसे की घर की खुली बालकनी, तो रात में ये बड़ी बेशर्मी से उपर बैठ कर बीट करके फ़र्श को शैतान का आँगन बना , पौ फटते ही दाने-पानी की तलाश में दिनभर के लिए उड़ लेते हैं। घर वाले इन्हें कोसते हुए फ़र्श की बीट खुरचकर पानी से धुलाई कर इनके लिए आने वाली शाम की तैय्यारी कर देते हैं।

मेरे फ्लेट के बैडरूम के साथ एक खुली बालकनी है जहां हमारा ए.सी. लगा है और धुलाई मशीन व जूतों का रैक रखा है। उसके उपर रोज़ के अख़बार तरतीब से रख दिए जाते हैं। ठंड और ठंडी हवा से कमरे को बचाने के लिए बालकनी में सुबह की सफ़ाई के बाद पूरे दिन दरवाज़ा खुलता नहीं और दूसरी सुबहा जब खुलता है , तब तक रात के मेहमान निकल लिए होते हैं। उनके निशान बताते हैं कि आतंकी अपना मलवा रात भर में ,बाक़ायदा हमारी मशक़्क़त के लिए एक बार फिर छोड़ गए हैं।

जाड़ा चल रहा है और यह रोज़ की गहन सफ़ाई का सिलसिला जब हमारी बर्दाश्त के बाहर होने लगा तो हमने सोचा कि शाम को इनके आते ही इन्हें उड़ा देना होगा। ऐसा करने के बाद यह भी रोज़ का एक और सिलसिला बन गया। मगर जिस शाम हम यह न कर पाते , तो वही होता जो अब तक होता रहा था। हम परेशान थे। हमारी मंज़िल पर रहने वाले हमारे पड़ौसी ने बताया कि बालकनी को कवर करा कर उन्होंने इस समस्या को हल कर लिया है।

मगर मेरे लिए तो घर की खुली बालकनी का मज़ा कुछ और ही है। अगर ऐसा न होता तो घरों में परंपरागत झरोखों की कोई जगह ही नहीं होती। झरोखे से झांकने, सामने वाली खिड़की की हरकतें ,नीला आसमान,बरसाती फुहारें या तेज झड़ी की झमाझम कहाँ मिलती। रिमझिम की पहली बौछार के बाद मिट्टी से उठने वाली सुगंध नथुनों तलक कहाँ से आती ? गली से निकलती बैंड बाजा बारात कहाँ से दिखती ? तो यह सुख मात्र एक जोड़ा कबूतरों पे कुरबान करने वालों में से हम नहीं हैं।

हम बैडरूम के शीशे से हर शाम झुटपुटा होते ही निगरानी रखने लगे और जैसे ही कबूतर युगल वहाँ आता ,हम उसे उड़ा देते।

एक शाम हम देर रात घर लौटे तो यह कबूतर युगल वहीं मौजूद था। उस रात बहुत कठोर धुन्ध,कड़ाके की ठंड और बौछार के साथ अच्छी खासी ठंडी हवा चल रही थी। हमने दरवाज़े के बाहर के घुप्प अंधेरे में झांकने के लिए बालकनी की लाइट जला दी। तो जो नज़ारा दिखा ,उससे खून में इतना उबाल आया कि ज़ोर से कुन्डी खड़खड़ाते हुए दरवाज़ा झटके से खोल दिया। यह कार्यवाही इतनी अप्रत्याशित थी कि सोता-उंघता यह जोड़ा फड़फड़ाते हुए अंधेरे में कहीं उड़ गया। हमने मन में इन्हें गाली देते हुए सजा दिए जाने के अंदाज में राहत की साँस के साथ ठंडे पड़ते बैडरूम के दरवाज़े को कस के बंद कर लिया। एक तरह से हमारे लिए यह एक बड़ी फ़तह थी।

सुबह उठने पर टेलिविज़न ने रात के तापमान की खबर में बताया कि गुडगांव में उस रात का तापमान सात डिग्री था। तब अचानक यह लगा कि रात के अंधेरे में भटकता वह कबूतर युगल काँपता तड़पता मर न गया हो ! मन असहज हो गया और कुछ विचलित भी हुआ पर इस सोच में गंभीरता कहीं नहीं थी।

दिन निकल गया और ख़्याल आया कि अगर आज शाम को कबूतर जोड़ा फिर आया तो उसे बर्दाश्त कर उनकी उपस्थिति मंज़ूर कर लेंगे। मगर उस शाम वो नहीं लौटे। उनका न आना मन में गंभीर अपराध बोध जैसा भारी लगने लगा। लगा कि कहीं जानबूझकर पाप कर दिया है। किसी का आशियाना छीन कर वही किया है जैसा कि सरकारें किसी झुग्गी बस्ती को अवैध होने पर कभी भी उजाड़ सकतीं हैं।

कहते हैं कि समय बहुत बड़ा हीलर होता है। वक़्त के साथ धूमिल होती स्मृति अपराध बोध पर मल्हम लगा देती है। कुछ समय बाद ही अपराध भी भुलाकर अपराध नहीं रहता। पर क्या वह क्षम्य भी हो जाता है ? धार्मिक अवधारणा है कि न्याय वाले दिन सजा के सभी हक़दारों को अपना-अपना हिसाब चुकाना ही होगा। यह धर्म भय कितना वास्तविक या कपोल कल्पित है, कहना मुश्किल है। फिर भी एक बात ज़रूर है कि यह सामान्य धर्म भीरू प्रकृति के लोगों को अपराध करने से पहले कुछ मन बोध से विवेक लगाने को प्रेरित तो करता ही है। अगर यह न होता तो समाज में अपराधों की कोई सीमा ही न होती। हर हाथ तलवार की मूठ या तमंचे के घोड़े पर उँगली भर दबाने के लिए अधीर होता। यहाँ धर्म और विवेक का सामाजिक संतुलन ज़रूरी लगता है। धर्म पोंगापंथी नहीं ,मानव समाज को सही दिशा में चलाने वाली नकेल है। ज़रूरत है उन साईसों की जो खुद मार्ग पर रहें, घोड़ों को सही आंकें भी और हाँकें भी। मगर धर्म पर मगरमच्छों का क़ब्ज़ा है तो सरल मन छोटी छोटी बातों/घटनाओं पर , ग्लानि से त्रस्त रहेगा और कठोर मन अपराध को कभी कोई पाप नहीं मानेगा।

कबूतर जोड़ा नहीं लौटा तो मैं ग्लानि में हूँ। अपराध बोध से ग्रस्त हूँ। खोज रहा हूँ कि कोई वजह है या यों ही बेवजह परेशान हूँ !

महेन्द्र महर्षि
28.1.2020
गुडगांव.