देवनागरी लिपि और हिन्दीभाषा की महत्ता

★ ललकार/हुंकार/चुनौती– आपमें से कोई भी इस आलेख में से ‘एक भी’ अशुद्धि निकाल कर दिखाये।

— आचार्य पं० पृथ्वीनाथ पाण्डेय

हमारी देवनागरी लिपि और हिन्दीभाषा उतनी सहज नहीं हैं, जितनी हिन्दी-भाषा के जानकारजन प्राय: समझते और समझाते हैं। इस लिपि और भाषा के मूल में दो ही ऐसे कारक हैं :– १- व्याकरण २- भाषाविज्ञान/भाषा-विज्ञान, जो एक वैयाकरण और भाषाविज्ञानी को उन्हें (लिपि-भाषा) ‘वैज्ञानिक रूप’ की मान्यता देने के लिए बाध्य करते हैं। जिस किसी ने भी देवनागरी लिपि और हिन्दीभाषा की अवधारणाएँ ग्रहण कर लीं, वही शब्दप्रयोग करते समय अपनी ‘मौखिक भाषा’ और ‘लिखित भाषा’ के साथ न्याय कर सकता है।

हिन्दीभाषा-विषयक राष्ट्रीय-अन्तरराष्ट्रीय आयोजनों में भी अधिकतर वक्तृत्व अपरिपक्वता को रेखांकित करते हुए प्रतीत होते हैं। ऐसा इसलिए कि प्रच्छन्न करतल-ध्वनि के मध्य यथार्थ को नेपथ्य में डालकर प्रवंचनामय आदर्श की स्थापना करते हुए, ‘नामधारियों’ का महिमामण्डन कर आयोजकगण अपनी पीठ थपथपाते “रँगे हाथों” पकड़े जाते हैं।

हमारी लिपि और भाषा से सम्पृक्त एक वाक्य में ही इतनी ऊष्मा और ऊर्जा रहती है कि वह एक समृद्ध मानक व्याकरण और भाषाविज्ञान के प्रणयन करने का पथ प्रशस्त कर दे।

(सर्वाधिकार सुरक्षित– आचार्य पं० पृथ्वीनाथ पाण्डेय, प्रयागराज; ५ नवम्बर, २०२० ईसवी।)