जनसामान्य के मन-मस्तिष्क मे शिक्षा की उपयोगिता और महत्ता का बीजवपन करना होगा

‘सर्जनपीठ’, प्रयागराज के तत्त्वावधान मे शिक्षक-दिवस की पूर्व-सन्ध्या मे ‘शिक्षा सर्वसुलभ कैसे हो?’ विषय पर ४ सितम्बर को एक आन्तर्जालिक राष्ट्रीय बौद्धिक परिसंवाद का आयोजन ‘सारस्वत सदन’, अलोपीबाग़, प्रयागराज से किया गया था, जिसमे देश के शिक्षा, समाज, साहित्य, भाषा, पत्रकारिता आदिक क्षेत्रों से सम्बन्धित विशेषज्ञों की सहभागिता रही।

प्रो० रवि कुमार मिश्र, प्राध्यापक– (समाजशास्त्र, नागरिक पी० जी० कॉलेज, जंघई जौनपुर।) ने बताया, “शिक्षा को सर्वसुलभ होने के लिए यह आवश्यक है कि शिक्षा की महत्ता का मूल्य कमज़ोर न पड़े। समाज और सरकार इस दिशा में प्रयास करे। जिन लोग की रुचि शिक्षा के क्षेत्र मे जुनून जैसी हो, उन्हें ही शिक्षण का दायित्व दिया जाये। मातृभाषा मे तकनीकी अध्ययन, दुर्गम क्षेत्रों मे विद्यालयों की स्थापना, नियमो और औपचारिकताओं मे व्यावहारिक पहलू पर केन्द्रण, विविध योजनाओं के प्रति जागरूकता आदिक से शिक्षा को सर्वसुलभ बनाया जा सकता है। मनोविज्ञानियों और समाजशास्त्रियों की सलाह को तरज़ीह देनी होगी। जो लोग सरकार के प्रयास के बावजूद पढ़ाई छोड़ चुके हैं, अभिभावक के रूप में अपनी भूमिका नहीं निभा रहे हैं, उनकी काउंसिलिंग भी होनी चाहिए।”

  आशा राठौर, (सहायक प्राध्यापक– हिन्दी, श्री राघवेंद्र सिंह हजारी शासकीय महाविद्यालय हटा, जि०– दमोह, म०प्र०।) ने कहा, "यद्यपि शासन के द्वारा शिक्षा को सर्वसुलभ बनाने-हेतु 'सर्व शिक्षा अभियान', विभिन्न प्रकार की छात्रवृत्तियाँ, आरक्षण आदिक की व्यवस्था की जा रही है, जिससे स्थिति मे सुधार हो रहा है तथापि इस दिशा मे और अधिक कार्य करने की महती आवश्यकता है। सामाजिक प्राणी होने के कारण हम नागरिकों का भी यह कर्त्तव्य हो जाता है कि हम भी अपने स्तर पर शिक्षा को सर्वसुलभ बनाने- हेतु हर सम्भव प्रयास करें। जब देश के हर वर्ग तक, अत्यधिक ग़रीब विद्यार्थी तक शिक्षा की सुलभ हो जायेगी तब ही देश का वास्तविक विकास हो सकेगा।''

पंकज कुमार दुबे (हिन्दीविभागाध्यक्ष, डी० ए० ह्वी० मॉडल स्कूल, दुर्गापुर, पश्चिम बंगाल।) का मत है,"शिक्षा को सर्वसुलभ बनाने-हेतु सर्वप्रथम नियत सही होनी चाहिए। कठोर क़ानून होने चाहिए। प्रत्येक वर्ष शिक्षकों का मूल्यांकन होना चाहिए। विद्यालयों में बुनियादी सुविधाएँ अवश्य मौजूद होनी चाहिए। प्राथमिक शिक्षा में केवल महिलाओं को पढ़ाने की व्यवस्था करनी चाहिए। एक सुव्यवस्थित पुस्तकालय होनी चाहिए। कंप्यूटर-शिक्षण की व्यवस्था अवश्य होनी चाहिए। नियमित खेल-कूद की व्यवस्था ही नहीं, बल्कि शिक्षार्थियों के अनुकूल खेल के प्रशिक्षण की व्यवस्था होनी चाहिए। सरकारी विद्यालयों मे मिलनेवाले अनुदानों एवं मिड-डे मिल पर गिद्ध दृष्टि डालने वालों को सदैव के लिए कार्यमुक्त कर देने की व्यवस्था करनी होगी। विद्यालय के शैक्षणिक और ग़ैर-शैक्षणिक सभी कर्मियों का तबादला नियमित रूप से होते रहना चाहिए। शैक्षणिक केंद्रों को शिक्षा के क्षेत्र में वर्चस्व क़ायम करने वाले बाहुबलियों के मकड़जाल से मुक्त करवाना होगा।"

  आचार्य पं० पृथ्वीनाथ पाण्डेय (आयोजक एवं भाषा विज्ञानी, प्रयागराज) की अवधारणा रही, "शिक्षा को बाह्याडम्बर से बाहर लाना होगा, जिससे जन-जन को विश्वास हो सके कि शिक्षालयों मे प्रवेश पाना कोई कठिनाई का काम नहीं है। सरकारी पाठशालाओं के भवन, शिक्षण से सम्बन्धित समस्त उपकरणो, उत्तम कोटि की अध्यापन-पद्धति का जनसंचार-माध्यम के द्वारा प्रचारित-प्रसारित किया जाना अनिवार्य बनाया जाये। गाँव-गाँव मे कठपुतली, सिनेमा, नौटंकी, नुक्कड़ नाटक-प्रहसन इत्यादिक के द्वारा जीवन मे शिक्षा की कितनी उपयोगिता और महत्ता है, इसे समझाया जाये। कुकुरमुत्तों की तरह फैलाये जा रहे निजी स्कूलों पर नियन्त्रण करते हुए, शासकीय स्कूलों की स्थापना पर बल दिया जाये। निजी स्कूलों के शिक्षण-शुल्क का परीक्षण करते हुए, अनावश्यक मदों मे लिये जानेवाले शुल्क को समाप्त किया जाये।"

    डॉ० धारवेन्द्रप्रताप त्रिपाठी (प्रवक्ता– हिन्दी, सेण्ट मेरी लुकस स्कूल ऐण्ड कॉलेज, प्रयागराज।) ने बताया,"आज की रटन्त शिक्षा, प्रतिशतता की भूख से हम सबको निजात पाने की तत्काल आवश्यकता है। आरम्भिक शिक्षा से ही हमें यह व्यवस्था सुनिश्चित करनी होगी कि विद्यार्थी सीखने की ललक के साथ शिक्षा से जुड़े, न कि पाठ-रटने की प्रवृत्ति से; साथ ही सरकार अध्यापकों के साथ सरकारी कर्मचारियों की तरह व्यवहार करने के बजाय, उन्हें समाज के मुखिया के रूप में देखने और समझने की कोशिश करे। अध्यापक-वर्ग नौकरी करने के बजाय, सरकारी कर्त्तव्य की पूर्ति करने के बजाय सामाजिक कर्त्तव्य और राष्ट्रविकास के पवित्र कार्य से अपने को  सम्बद्ध करे।"

प्रियंवदा पाण्डेय (साहित्यकार, देवरिया।) ने कहा, "शिक्षा को सर्वसुलभ बनाने के लिए सरकार को सबसे पहले शिक्षा का बाज़ारीकरण और निजीकरण रोकना होगा। जब तक पूरे देश मे एक शिक्षा-प्रणाली और एक पाठ्यक्रम लागू नहीं होगा; शिक्षा निजी संस्थाओं के हाथों मे होगी तब तक असमानता व्याप्त रहेगी। अतः पूरे देश के लिए शिक्षक-शिक्षार्थी के मध्य एक मानदण्ड स्थापित कर, शिक्षा- व्यवस्था को माफ़ियाओं से मुक्त कराने की आवश्यकता है।"

सविता शुक्ल (शोधच्छात्रा, प्रयागराज) ने बताया, "शिक्षा को सर्व-सुलभ बनाने-हेतु जनता के मन मे शिक्षण के प्रति रुचि जाग्रत् करनी होगी। इसके लिए शिक्षा की उपयोगिता और महत्ता को स्पष्ट करना होगा। लघु बस्तियों और गाँव की शिक्षणसंस्थाओं मे शिक्षा से सम्बन्धित कार्यक्रम करते समय वहाँ के आस-पास की जनता को बुलाकर उनमे शिक्षा के प्रति रुचि जगानी होगी, जिससे वहाँ की जनता शिक्षा की जीवन मे कितनी उपयोगिता है, इसे समझ सके। सरकार की शैक्षिक योजनाओं के लाभ से भी जन-जन को अवगत कराने का अभियान आरम्भ करना होगा।"

 आरती जायसवाल (साहित्यकार, रायबरेली) ने कहा, "उत्तम शिक्षा-व्यवस्था को सस्ता और सर्वसुलभ बनाने के लिए सरकारी शिक्षा-व्यवस्था की गुणवत्ता तथा वातावरण मे सुधार करने एवं जनजागरूकता की आवश्यकता है।"

  डॉ० राघवेन्द्र कुमार त्रिपाठी 'राघव' (वरिष्ठ पत्रकार, हरदोई) ने कहा, "विद्यालय मे शिक्षा को सर्वसुलभ बनाने के लिए शिक्षा का सस्ता और रोज़गारपरक  होना आवश्यक है। सरकारी संस्थानों मे जातिगत आरक्षण को समाप्त कर, आर्थिक आरक्षण को लागू किया जाना चाहिए। निजी शिक्षण संस्थानो को एक अधिनियम-द्वारा शैक्षणिक शुल्क के स्तर पर प्रतिबंधित किया जाना चाहिए। उच्च-शिक्षा पर लिये जानेवाले शुल्क को कम करके शिक्षा की सुलभता बढ़ायी जाये।'' 

    डॉ० सरिता सिंह परिहार (प्रवक्ता― बी० डी० आर० एस० इण्टर कॉलेज, एटा।) ने कहा, "निजी शिक्षण-संस्थानो पर नकेल कसनी होगी, जहाँ सिर्फ़ अमीरों के पाल्य पढ़ते हैं तथा मेधावी, किन्तु ग़रीब बच्चों का नामांकन ही नहीं होता है। अब हम आते हैं सरकारी संस्थाओं की तरफ़, जहाँ स्कूल-प्रशासकों और शिक्षकों के मध्य प्राय: उत्तरदायित्व की कमी देखी जाती है, जो शिक्षा की ख़राब गुणवत्ता और छात्रों मे प्रेरणा की कमी जैसा परिणाम उत्पन्न करता है। सरकारी संस्थाओं के अधिकतर विद्यालयों मे शिक्षक-छात्र अनुपात प्रायः निम्न होता है, जिसके कारण प्रत्येक छात्र पर समान रूप से ध्यान नहीं दिया जाता है।"

 आदित्य त्रिपाठी (अध्यापक, हरदोई) का मत है, "इसके लिए सरकारी संस्थानों की संख्या मे वृद्धि करनी होगी; और शिक्षकों की कमी को दूर करनी होगी तथा गुणवत्तापूर्ण शिक्षा की व्यवस्था- हेतु संसाधनों मे वृद्धि करनी होगी। शिक्षा के व्यवसायीकरण पर लगाम लगाकर ही शिक्षा को सर्वसुलभ बनाया जा सकता है।"

 हंसराज सिंह (सीमाशुल्क अधिकारी, ग़ाज़ियाबाद।) ने कहा, ''सरकार को चाहिए कि बच्चो की रुचि के अनुरूप ही उसे शिक्षित कराने की व्यवस्था करे। शिक्षा की उपलब्धता हर माँ-बाप की आर्थिक स्थिति को समझते हुए एक निर्धारित मानदण्ड के अन्तर्गत होनी चाहिए।"