गज़ल : अब कहाँ हंसना हँसाना रह गया

जगन्नाथ शुक्ल, इलाहाबा

अब केवल खाना कमाना रह गया।

अब कहाँ हँसना हँसाना रह गया ।
मुश्किलें जीवन को ,हरपल निचोड़तीं,
अब तो केवल , रोना रुलाना रह गया।
जो हमेशा ख़ुद को मेरा हमदर्द कहती थी,
अब उसे केवल अहर्निश मनाना रह गया।
उन्मुक्त उड़ना चाहता, हूँ नीले गगन में मैं,
पर कटे ये देखकर आँसू बहाना रह गया।
तोड़ दो ये बंदिशें ,तुम रुख हवा का मोड़ दो,
बादलों की ओट में छुपना छुपाना रह गया।
‘जगन’ तू ही बता बीच मँझधार में मेरी नैय्या,
अब केवल तटबन्ध से मेरा निकलना रह गया।