‘कामायनी’ की काव्य-कमनीयता

वस्तुत: आज न तो ‘कामायनी’-सदृश कृती (निष्णात/निपुण) कृतिकार हैँ और न ही अनुभव करनेवाला पाठक-वर्ग है; क्योँकि कविता के नाम पर ‘हृदयजीविता’ की अवहेलना करते हुए, ‘विचारजीविता’ का पालन-पोषण किया जा रहा है। कविता का उद्गम जब हृदय-प्रान्त से होता है तब काव्यांग– रस-छन्द-अलङ्कार– निर्झर-सदृश चरित्र जीने लगता है :–

“इड़ा ढालती थी वह आसव, जिसकी बुझती प्यास नहीँ।
तृषित कंठ को, पी-पी कर भी, जिसमें है विश्वास नहीँ।
वह वैश्वानर की ज्वाला-सी, मंच वेदिका पर बैठी,
सौमनस्य बिखराती शीतल, जड़ता का कुछ भास नहीँ।”

(कामायनी– ‘स्वप्न’; प्रणेता– जयशंकर प्रसाद )

यहाँ शब्दसौष्ठव, संरचना-संव्यूहन तथा कल-कल, छल-छल निनादित शब्दधारा की शाश्वत संस्कृति मे सम्मोहित करने की सामर्थ्य लक्षित हो रही है।

टिप्पणी–
वस्तुत: कामायनी का शिल्प सर्वत्र ही एक अपूर्व लोकोत्तर-स्तर पर विद्यमान रहता हैे, जिसमे क्षुद्रता का एकान्त अभाव है; अद्भुत, ऐश्वर्य, अलङ्कार-विकास है तथा लक्षणा-व्यञ्जना का विचित्र चमत्कार भी। कल्पना और भावना के अपूर्व वैभव के कारण इसे शैली मे मूर्त-विधान और बिम्ब-योजना की अद्भुत समृद्धि मिलती है।

‘कामायनी’ की भाषा सर्वत्र ही ‘चित्रभाषा’ और ‘प्रतीकभाषा’ मे अपनी पाठकप्रियता अर्जित करने मे क्षम है, जिसमे तत्सम और सचित्र संसन्दर्भ शब्दावली का मुक्त प्रयोग हुआ है। भाषा के इस असाधारण गुण के कारण ‘कामायनी’ की शैली सामान्य से सर्वथा भिन्न देखी जाती है। प्रयुक्त समस्त शब्दप्रयोग अपनी प्रांजलता एवं शुचिता का सम्बोध कराते हुए संलक्षित हो रहे हैँ।

◆ साभार– ‘कामायनी का महाकाव्यत्व’– डॉ० पृथ्वीनाथ पाण्डेय
(सर्वाधिकार सुरक्षित– आचार्य पं० पृथ्वीनाथ पाण्डेय, प्रयागराज; १३ अगस्त, २०२४ ईसवी।)