आ रहा है फिर से मौसम आम का

“हो रहा है ज़िक्र पैहम आम का
आ रहा है फिर से मौसम आम का”

ईश्वर ने हमें जो तमाम नेमते दी हैं, उनमें से आम मेरे लिए सबसे मनभावन, स्वादिष्ट और लजीज है। दिल्ली जैसे कंकरीट के जंगल में गर्मी शुरू होते ही लोगों का बुरा हाल हो जाता है। चिपचिपी पसीने वाली गर्मी, शरीर के पानी के साथ लहू तक चूस लेने वाली भयंकर लू , भगवान भास्कर का रौद्र रूप भला किसे सुहाता है? लेकिन इस कठोर, निष्ठुर मौसम का जिस तरह बच्चे साल भर इसलिए इंतजार करते हैं क्योंकि गर्मियों की छुट्टियां होती हैं और उन्हें कुछ समय के लिए ही सही पढ़ाई के तनाव से मुक्ति मिल जाती है। उसी तरह हम भी साल भर इस मौसम का बस इसलिए इंतजार करते हैं क्योंकि फलों का राजा आम इसी मौसम में अपनी पूरी आन, बान और शान के साथ आता है। किसी शायर ने सच ही तो कहा है-

“गर्मी से तो हम भी कर लेते कब की बगावत,
देती न जो वो हमें कुदरती आम की दावत।”

हम भारतीय आम के मामले में कुछ अधिक ही भाग्यशाली हैं क्योंकि हमारे यहां विश्व की सबसे अच्छी आम की किस्में पैदा होती हैं। दशहरी, लंगड़ा, हापुस, मालदा से लेकर अल्फांसो तक दर्जनों आम की किस्में ऐसी हैं जिनकी कल्पना करते, नाम लेते ही मुंह में पानी आ जाता है। एक आम ही है जो अपने नाम के कारण नहीं बल्कि गुणों, स्वाद के कारण इज्जत पाता है-

“आम तेरी ये ख़ुश-नसीबी है,
वर्ना लंगड़ों पे कौन मरता है।”

इससे भी अच्छी बात यह कि हमारे यहां आम देशव्यापी है, सर्वव्यापी है। उत्तर, दक्षिण, पूरब, पश्चिम देश के किसी भी हिस्से में जाइये आपको आम के सीजन में फलों के राजा से जरूर भेंट होगी। दक्षिण भारत मे तो कुछ किस्में ऐसी हैं जो साल भर फलती रहती हैं यानि कि गर्मियों में उत्तर भारत मे इस लजीज फल का लुत्फ उठाइये और सर्दियों में दक्षिण के आम खाकर पेट पूजा कीजिए।

अब तो मेरी उम्र हो चली है इसलिए खान-पान के प्रति काफी सचेत हो गया हूँ। लेकिन उम्र का एक दौर ऐसा भी था जब मैं आम के प्रति दीवाना था, पागल था। तब मैं गाता फिरता था-

“जरा ठहर जा ए जिंदगी,
आम अभी पक रहा है, मिठास की तलाश में।”

उस समय सोचता था कि यदि मैं किसी राज्य का ‘राजा’ होता तो ‘फलों के इस राजा’ के बदले शायद अपना राजपाट दांव पर लगाने को तैयार हो जाता। घूस लेने वाली किसी पोस्ट पर होता तो आमों के बदले सारे ‘खास’ काम कर देता। शिक्षक होता तो मुझे आम की गुरुदक्षिणा देने वाले शिष्य को पूरे अंक देता। जज होता तो अपराधियों को भी आम के बदले चुनाव प्रचार करने की इजाजत दे देता।

अगर कोई उम्र में बड़ा व्यक्ति, चाचा, ताऊ, बड़ा भाई मुझे आम का लालच दे देते तो मैं उनके पीछे पूरा दिन हाथ बांधे घूमता रहता, उनकी हर बात मानता। उम्र में छोटा व्यक्ति , छोटा भाई, भतीजा, भांजा अगर मेरे लिए आम ले आता तो मैं उसके सारे अपराध माफ कर देता। उसका जो मन होता, उसे करने देता। पकड़े जाने पर उसके सारे अपराधों का बोझ मैं अपने सिर पर ले लेता।

खैर यह तो रही विनोद की बात लेकिन उम्र के इस दौर में आम को अपने हाथों से तोड़ने और खाने के उस हुनर के जाने का अफसोस जरूर है,-

“पेड़ पर लगे आम को तोड़े अब एक अरसा हो गया,
लगता है उम्र के साथ बचपन का वो हुनर भी चला गया।”

चलताऊ भाषा में कहें तो मैं एक समय काफी सख्त लौंडा था लेकिन आम देखते ही पिलपिला हो जाता था, सच में ‘विनय’ हो जाता था। अगर उस समय कोई लड़की मुझे गुलाब का फूल या हीरे की अंगूठी लेकर प्रोपोज़ करती (कल्पना करने में क्या जाता है☺️😊☺️😊☺️) तो शायद मैं कुछ सोचता भी लेकिन आम की पेटी लेकर अगर वह मुझसे प्यार और नजाकत से-

” Would you marry me”

बोल देती तो मैं तुरत ही चट मंगनी, पट ब्याह कर लेता। हनीमून के लिए लखनऊ, मालदा या कोंकण का टिकट बुक कर लेता।

आप विश्वास नहीं करेंगे लेकिन आपकी कसम खा के कहता हूं कि एक बार मैंने अपनी एक क्रश को सिर्फ इसलिए प्रोपोज नहीं किया क्योंकि उसे आम खाने का शऊर नहीं था-

“गए थे अपने क्रश से इजहार-ए-मोहब्बत करने,
उसे छुरी कांटे से आम खाते देख बिना कुछ कहे लौट आए।”

उस समय मैं यह भी सोचता था कि किसी कारणवश अगर मेरे ‘लव’ से मेरी ‘मैरिज’ नहीं हो पाई, मजबूरन अर्रेंज मैरिज करनी ही पड़ी तो मैं अपनी होने वाली पत्नी से उसकी पढ़ाई-लिखाई, नाच-गाना, सिलाई-कढ़ाई के बजाय पूछता कि -“
आम का जूस बनाना आता है?
पना, अमावट बनाने में आनाकानी तो नहीं करोगी?
मुझे आम खाने से और आम का हो जाने से रोकोगी तो नहीं?”

अगर घरवाले मुझे खुद दहेज मांगने की अनुमति देते तो मैं 11 आम की पेटी, 21 बोतल आम का जूस और 31 अमावट के पीस मांग लेता। जनातियों से बारात में जाने वाले बच्चों का स्वागत कच्चे आम देकर, युवाओं का सत्कार पके आम से और बुजुर्गों, बिना दांत वाले मेहमानों का मान-सम्मान पना पिलाकर करने को कहता। अपने ससुर से कहता कि बिदाई के समय सभी बारातियों को पांच-पाँच किलो आम भेंट में दिए जाएं।

फेरे लेते समय मैं अपनी पत्नी को वचन देता कि तुम्हारे जीवन में पके आम जितनी मिठास भर दूंगा। तुम्हारा ‘आम’ से भी अधिक ध्यान रखूंगा। गर्मी में तुम्हें लंगड़ा और दशहरी तथा सर्दियों में मद्रासी आम खिलाऊंगा। जीविकोपार्जन के लिए घर से दूर या विदेश जाना पड़ता तो घरवालों से साफ-साफ कह देता कि मुझे घी, मिठाई और घर की बनी अन्य चीजों के बजाय मेरा प्यारा आम भेजिए:-

“नामा न कोई यार का पैग़ाम भेजिए,
इस फ़स्ल में जो भेजिए बस आम भेजिए।”

आम लोग अपनी प्रेमिका, माशूका के लिए मरते होंगे, जान निछावर करते होंगे। उसे देखते ही उनके मन को चैन और दिल को करार आता होगा। पर मुझ जैसे खास लोगों के दम में दम कब आता है, यह भी जान लीजिए:-

“तब कहीं आता है मेरे दम में दम,
नाम जब लेता हूँ हमदम आम का।”

‘आम’ को मैं घंटों निहार सकता हूँ, पहरों उससे अकेले में बात कर सकता हूँ। दिनों तक ‘आमचर्चा’ कर सकता हूँ और महीनों तक ‘आमरस’ में डूबे रह सकता हूँ। मैं ‘आमगाथा’ पर पोथियाँ भर सकता हूँ और ‘आमगुणों’ पर महाकाव्य लिख सकता हूँ। वस्तुतः मेरे जीवन का उद्देश्य ही ‘आममय’ हो जाना है।

“सुनहरा रंग और जुबान में मिठास,
कहतें हैं उसे ‘आम’ पर है वो बहुत खास।”

(विनय सिंह बैस)
आमरस में डूबे हुए