कवि! हरे-भरे खेतोँ मे चल

कवि! हरे-भरे खेतोँ मे चल।
तू देख चुका शहरी जीवन,
वैभव के सब नन्दन-कानन।
क्या देखा-क्या पाया तूने–
धनिकोँ के उर का सूनापन?
अब उठा क़दम, दो पहर हुआ,
उन दु:खिजन के आँगन मे चल!
कवि! हरे-भरे खेतोँ मे चल।
वे भले अशिक्षित, सौम्य-सरल,
कितना पवित्र उनका जीवन!
बोली मे कोयल-कूकभरी,
दिल मे रहता है, अपनापन।
छल-द्वेष-घृणा से दूर बसे,
कान्हा के वृन्दावन मे चल!
कवि! हरे-भरे खेतोँ मे चल।
दु:ख-गठरी सिर पर है बन्धन,
फिर भी मानो मस्तक-चन्दन।
श्रमसीकर पूरित देह लिये,
मन भीतर से करता क्रन्दन।
श्रम ही जीवन, श्रम ही पूजा।
श्रममय सुख के साधन मे चल!
कवि! हरे-भरे खेतोँ मे चल!
मनमयूर छम-छम करता,
परिवेश समूचा है रंजन।
नदी-किनारा गायन करता,
भाव करे मोहक नर्तन।
उर मे सम्मोहन छा जाये,
उन्मुक्त पग लिये मन मे चल!
कवि! हरे-भरे खेतोँ मे चल।

(सर्वाधिकार सुरक्षित– पृथ्वीनाथ पाण्डेय, प्रयागराज; १ मई, २०२५ ईसवी।