
२६ मार्च को महादेवी वर्मा के जन्म-दिनांक के अवसर पर 'सारस्वत सदन', आलोपीबाग़, प्रयागराज से 'सर्जनपीठ' की ओर से आयोजित एक राष्ट्रीय आन्तर्जालिक बौद्धिक परिसंवाद के अन्तर्गत भाषाविज्ञानी आचार्य पं० पृथ्वीनाथ पाण्डेय ने महीयसी महादेवी वर्मा के संग व्यतीत किये गये विविध सारस्वत क्षण को राष्ट्रीय पटल पर साझा किया था।
आचार्य ने १४ अगस्त, १९८१ ई० को महादेवी जी से स्वतन्त्रता-विषयक प्रश्न किया था तब उन्होँने कहा था, "स्वतन्त्रता की लड़ाई नैतिक मूल्योँ के आधार पर लड़ी गयी थी। सत्याग्रह, अहिंसा आदि ऐसे मूल्य थे, जिनसे हिन्दुस्तानी की पहचान थी। स्वतन्त्र होने के उपरान्त न जनता ने शासन को बाध्य किया कि वह जीवनमूल्योँ की रक्षा करे और न सरकार ने ऐसा वातावरण उपस्थित किया, जो जनता के लिए उपयुक्त रहा हो। यही कारण है कि हमारी शैक्षणिक संस्थाएँ, हमारी साहित्यिक-सांस्कृतिक संस्थाएँ नये वातावरण के अनुरूप नहीँ बन सकीँ, अतएव हम जीवनमूल्योँ को भूलते गये। अब तो कोई जीवनमूल्य है ही नहीँ।''
ज्ञानपीठ पुरस्कार पाने के बाद, फ़रवरी, १९८२ ई० मे मै महादेवी जी के घर पहुँचा। ९ मिनट तक प्रतीक्षा सहने के बाद वे आयीँ और आते ही बोल पड़ीँ, "भाई! मेरी हालत देख ही रहे हो; इण्टरव्यू कैसे दे पाऊँगी। मेरी विनम्र हठ थी, देवी जी झुकीँ।
“आपने जब काव्यक्षेत्र मे प्रवेश किया था तब उस समय का साहित्यिक परिवेश कैसा था?”
“कहाँ से शुरू करूँ? अच्छा कुछ सोचने दीजिए। अतीव सम्भावनाओँ से विकसित था, उस समय का साहित्यिक परिवेश। १९१७ मे मै यहाँ आयी थी। हाँ, इन्दौर से यहाँ आयी। ‘चाँद’ निकलता था। मेरी कई रचनाएँ छपीँ भी। सौभाग्य से सुभद्रा जी (सुभद्राकुमारी चौहान) के दर्शन हो गये थे। काफ़ी दिनो तक हमदोनो मिलकर कविता लिखते थे; मगर फिर वो चली गयीँ।”
“आलोचकोँ और समीक्षकोँ ने आपको भी नहीँ बख़्शा। अब देखिए न, वादोँ की चपेट मे आपको भी ला खड़ा किया है। मेरा आशय ‘छायावाद’ से है। वैसे ‘यामा’, जिसपर आपको ज्ञानपीठ पुरस्कार दिया गया है, को पढ़ने के बाद आपको छायावादी कवियोँ की परम्परा मे स्थान देने मे कुछ अटपटा-सा लगता है। आपका क्या विचार है?”
“देखिए, हर व्यक्ति की दृष्टि अपनी निजी होती है। वह जिसको जैसा चाहता है वैसा ही मूल्यांकन करने का प्रयास करता है। आज का आलोचक ‘आलोचना’ करने के लिए लिखता है। वह विषयोँ की गहराइयोँ तक उतरे या न उतरे, उसके लिए कोई अन्तर नहीँ पड़ता।”
“अब जब आप अपनी पहले की कृतियोँ को देखती हैँ तब क्या ऐसा नहीँ लगता, उनमे और सुधार कर परिष्कृत किया जाये?”
“अब तो आश्चर्य होता है, उस समय छोटी-सी अवस्था मे कैसे मैने सब लिख लिया। देखिए, भाव ‘भाव’ होता है। उस समय जो भाव थे, उतने परिपक्व नहीँ थे जितने कि अब हैँ, फिर यह तो समय की बात है। समय अच्छा था, सब लिख दिया। अब उतना कहाँ सम्भव है।”
आन्तर्जालिक आयोजन मे आचार्य पं० पृथ्वीनाथ पाण्डेय ने महादेवी जी से भेँट की गयी विस्तृत वार्त्ता को राष्ट्रीय पटल पर साझा किया था, जिसकी सबने मुक्त कण्ठ से प्रशंसा की थी। यहाँ हमने उसका एक लघु रूप प्रस्तुत किया है।