सई नदी की करुण कथा : पौराणिक और ऐतिहासिक नदी मर रही है

महीयसी महादेवी की अविस्मरणीय सारस्वतधर्मिता

● आचार्य पं० पृथ्वीनाथ पाण्डेय

इलाहाबाद-आगमन और क्रॉस्थवेट स्कूल, इलाहाबाद मे प्रवेश करने के अनन्तर महादेवी वर्मा की साहित्य-साधना अबाध्य गति मे (‘गति से’ अशुद्ध है।) चलती रही। ‘माँ ने सुनी एक करुण कथा’ का प्राय: सौ छन्दों मे वर्णन कर, महादेवी ने खण्ड काव्य की रचना कर दी थी। सुभद्राकुमारी चौहान से उनकी भेंट इसी विद्यालय मे हुई थी, तब महादेवी पाँचवीं और सुभद्रा सातवीं कक्षा मे पढ़ती थीं। मिडिल से पूर्व ही महादेवी का ध्यान बाह्य जीवन के दु:ख (‘दु:खों’ अशुद्ध है।) और कष्ट (‘कष्टों’ अशुद्ध है।) की ओर गया, परिणामत: और प्रभावत: ‘अबला’, ‘विधवा’ आदिक विषयों पर वे प्रभावपूर्ण लेखन कर पायी थीं। स्कूल के छात्रावास मे महादेवी किसी से भी बहुत कम बोलती थीं। वे चिन्तन-अनुचिन्तन मे लीन रहकर परा-अपरा विद्या का अभ्यास करती रहती थीं; प्राय: पुस्तको के साथ संवाद करती रहती थीं। श्रीधर पाठक की पुत्री ललिता पाठक से उनका विशेष लगाव था। स्कूल मे उनका जीवन ‘बाल भगतिन’-जैसा दिखता था। इसी प्रवृत्ति के कारण वे कवि-सम्मेलन, संगोष्ठी आदिक मे अधिक भाग नहीं ले पाती थीं।

प्रयाग महिला विद्यापीठ और घर मे बाहरी-भीतरी क्षेत्र की सीमाएँ रहीं। वे इलाहाबाद से प्रकाशित क्रान्तिकारी पत्रिका ‘चाँद’ में वर्ष १९३१ से १९३४ तक लिखती रहीं, जिनमे से २१ निबन्धों के संकलन को नारी की स्थिति, अधिकार, कार्यक्षेत्र, व्यवसाय, समस्याओं तथा समाज शक्ति मे नारी की दशा और दिशा का अमूल्य दस्तावेज़ कहा जा सकता है।

साहित्यिक परिवार मे से इलाहाबाद मे आनेवाले साहित्यकारों के लिए तो उनका निवास प्रवासस्थल ही था; किन्तु अन्य अतिथियों के लिए भी उनका द्वार मुक्त रूप से खुला रहता था। मैथिलीशरण गुप्त ने कहा था,”मेरी प्रयाग-यात्रा केवल संगम-स्नान से पूरी नहीं होती; उसको सर्वथा सार्थक बनाने के लिए मुझे सरस्वती (महादेवी) के दर्शन के लिए प्रयाग महिला विद्यापीठ जाना पड़ता है। संगम में कुछ फूल-अक्षत चढ़ाना पड़ता है। सरस्वती-मन्दिर में कुछ प्रसाद मिलता है। ‘साहित्यकार संसद्’ हिन्दी के लिए उन्हीं का प्रसाद है।”

विभिन्न आयोजनो मे महादेवी जीवनपक्ष, सामाजिक पक्ष, सामाजिक प्रतिक्रिया, सामाजिक मूल्यादिक पर विशद और विस्तृत चर्चा करती थीं। यह एक अलग विषय है कि वे नितान्त अन्तर्मुखी थीं। वे विरोध को जीती थीं और प्रतिकार करने की क्षमता भी विकसित कर लेती थीं। ऐसा नहीं देखा गया कि वे समकालीन साहित्यकारों में इतनी घुली-मिली रही हों अथवा घुल-मिल जाती रही हों। हाँ, वे सभी का समादर करती थीं। यही कारण है कि जब भी कोई बाहर का साहित्यकार इलाहाबाद आता था, वह महादेवी वर्मा से मिलने की अभिलाषा को शीर्ष पर रखता था। इलाहाबाद के सभी प्रसिद्ध साहित्यकार उनसे भेंटकर, तत्कालीन काव्य-परिदृश्य पर संवाद अवश्य करते थे; उनसे दिशा-निर्देश की उत्कण्ठा रखते हुए, मिलनेवाले साहित्यकार-लेखक, कवि-कवयित्री, पत्रकार, समीक्षक आदिक उनकी ओर से कभी निराश नहीं होते थे। यही कारण है कि अशोकनगर, इलाहाबाद-स्थित उनका निवास ‘साहित्यकार-संसद्’ के रूप मे विख्यात रहा है।

निराला जी की भाँति वे भी किसी साहित्यकार का अपमान ‘स्वयं’ का अपमान समझती थीं। आर्थिक परिस्थिति से विक्षिप्त निराला जी को महल मे रखने का उनका स्वप्न ‘साहित्यकार-संसद्’- निर्माण के साथ ही साकार हुआ था। यह अलग विषय है कि ‘साहित्यकार-संसद्’ वर्तमान मे ‘विवाद’ का विषय बना हुआ है और जिस उद्देश्य की पूर्ति के लिए उसका निर्माण कराया गया था, वह अब पूरी तरह से इलाहाबाद और बाहर के साहित्यकारों को अँगूठा दिखा रहा है। उस ट्रस्ट की सम्पत्ति को कुछ लोग अपनी सम्पदा मानकर, स्वेच्छाचारिता का परिचय दे रहे हैं और स्वयं को साहित्यकार-कवि माननेवाले लोग ‘गांधी जी के तीन बन्दर’ का चरित्र जीते आ रहे हैं।

बहरहाल, महीयसी महादेवी वर्मा ने अपनी सारस्वत लेखनी से साहित्यलोक को जिस कोटि की शब्दधर्मिता का गुण-धर्म दिया है, वह चिर-स्मरणीय है।

(सर्वाधिकार सुरक्षित– आचार्य पं० पृथ्वीनाथ पाण्डेय, इलाहाबाद; ११ सितम्बर, २०२३ ईसवी)