भाव-जगत् मे बस गये, सम्बन्धोँ के खेल

एक–
कैसा भाई दूज है, लिये प्रथा को संग।
प्रेम-नेह दिखता नहीँ, रिश्ते होते तंग।।
दो–
छिटक रहे भाई-बहन, भौतिकता ले साथ।
रोता भाई दूज भी, झुका-झुकाकर माथ।।
तीन–
बचपन बूढ़ा हो रहा, लकुटी ही अब साथ।
बिछड़ गये भाई-बहन, मानो हुए अनाथ।।
चार–
काल-रूप यमराज का, वर्णन से है दूर।
छीन ले गया बहन को, कितना था वह क्रूर!
पाँच–
बचपन यादोँ मे पला, हाथोँ मे था हाथ।
निर्मम झोँका हवा का, लिया उड़ाया साथ।।
छ: –
आता भाई दूज जब, उलटा लौटे पाँव।
कैसे-कैसे व्यूह थे, चलते थे सब दाँव।।
सात–
आभासी-सा बन गये, कहीँ न कोई मेल।
भावजगत् मे बस गये, सम्बन्धोँ के खेल।।
आठ–
भाई दूज! लौट चलो, मन है बहुत उदास।
बढ़ी आयु है याद की, घटती नहीँ खटास।।

(सर्वाधिकार सुरक्षित– आचार्य पं० पृथ्वीनाथ पाण्डेय, प्रयागराज; ३ नवम्बर, २०२४ ईसवी।)