
हाशिया बनाकर खुद खैर बनकर पूछना
खुश्क सा होकर खस्ता करना
देह स्वतंत्र सी लगे
और मन को कहीं कफस ने जकड़ा।
लफ्ज़ खामोश हो गए
मानो गहरी निद्रा में सो गए
गुमनाम सा कुछ हो रहा था
बवंडरों में अब खो गया था।
गवारा नहीं था हृदय को
और हृदय ही गवाही दे रहा था
गश में पड़े हैं पन्नो की तरह
नार्तस का नाम देकर
गैर सा बनकर
नालिशों में ही तो है जकड़ा।
~प्रीति शर्मा
लद्दा, घुमारवीं, बिलासपुर, हिमाचल प्रदेश